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वि॒भ्राज॑मान उ॒षसा॑मु॒पस्था॑द्रे॒भैरुदे॑त्यनुम॒द्यमा॑नः । ए॒ष मे॑ दे॒वः स॑वि॒ता च॑च्छन्द॒ यः स॑मा॒नं न प्र॑मि॒नाति॒ धाम॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vibhrājamāna uṣasām upasthād rebhair ud ety anumadyamānaḥ | eṣa me devaḥ savitā cacchanda yaḥ samānaṁ na pramināti dhāma ||

पद पाठ

वि॒ऽभ्राज॑मानः । उ॒षसा॑म् । उ॒पऽस्था॑त् । रे॒भैः । उत् । ए॒ति॒ । अ॒नु॒ऽम॒द्यमा॑नः । ए॒षः । मे॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । च॒च्छ॒न्द॒ । यः । स॒मा॒नम् । न । प्र॒ऽमि॒नाति॑ । धाम॑ ॥ ७.६३.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:63» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विभ्राजमानः) वह प्रकाशरूप परमात्मा (उषसां) सब प्रकाशित पदार्थों में (उपस्थात्) स्थिर होने से (रेभैः) उद्गात्रादि स्तोतृपुरुषों द्वारा (अनुमद्यमानः) गान किया हुआ (उदेति) प्रकाशित होता है (एषः) यह (सविता) सबका उत्पन्न करनेवाला (देवः) परमात्मा (मे) मेरी कामनाओं को (चच्छन्द) पूर्ण करता है और (यः) वह (नूनम्) निश्चय करके (धाम) सब स्थानों को (समानम्) समानरूप से (प्रमिनाति) जानता है अर्थात् न किसी से उसका राग और न किसी से द्वेष है ॥३॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि वह परमात्मदेव प्रत्येक मनुष्य के हृदयरूपी धाम को समान भाव से जानता है, उसमें न्यूनाधिक भाव नहीं अर्थात् वह पक्षपात किसी के साथ नहीं करता। परमात्मभावों को अपने हृदयगत करना ही उसके प्रकाश होने का साधन है, वही सब ज्योतियों का ज्योति, सर्वोपरि विराजमान और वही सबका उपास्यदेव है, उसी की उपासना करनी चाहिये, अन्य की नहीं ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विभ्राजमानः) सर्वप्रकाशकः परमात्मा (उषसां) प्रकाशितपदार्थानां मध्ये (उपस्थात्) स्थितत्वाद्धेतोः (रेभैः) स्तुतिकारकैरुद्गात्रादिभिः (अनुमद्यमानः) उपगीयमानः (उदेति) प्रकाशते (एषः) असौ (सविता) सर्वोत्पादकः (देवः) परमात्मा (मे) मम कामनां (चच्छन्द) पूरयति, अन्यच्च (यः) परमात्मा (नूनम्) निश्चयेन (धाम) अखिलस्थानं (समानम्) समानरूपेण (प्रमिनाति) जानातीत्यर्थः ॥३॥