वांछित मन्त्र चुनें

प्र बा॒हवा॑ सिसृतं जी॒वसे॑ न॒ आ नो॒ गव्यू॑तिमुक्षतं घृ॒तेन॑ । आ नो॒ जने॑ श्रवयतं युवाना श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra bāhavā sisṛtaṁ jīvase na ā no gavyūtim ukṣataṁ ghṛtena | ā no jane śravayataṁ yuvānā śrutam me mitrāvaruṇā havemā ||

पद पाठ

प्र । बा॒हवा॑ । सि॒सृ॒त॒म् । जी॒वसे॑ । नः॒ । आ । नः॒ । गव्यू॑तिम् । उ॒क्ष॒त॒म् । घृ॒तेन॑ । आ । नः॒ । जने॑ । श्र॒व॒य॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । श्रु॒तम् । मे॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । हवा॑ । इ॒मा ॥ ७.६२.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:62» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अब स्वभावोक्ति अलंकार से प्राणापान को संबोधन करके इन्द्रियसंयम की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रावरुणा) हे प्राणपानरूप वायो ! आप (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिए (प्र) विशेषता से (बाहवा, सिसृतम्) प्राणापानरूप शक्ति को विस्तारित करें (आ) और (नः) हमारी (गव्यूतिम्) इन्द्रियों को (घृतेन, उक्षतम्) अपनी स्निग्धता से सुमार्ग में सिञ्चित करें, हे प्राणापान ! आप नित्य (युवाना) युवावस्था को प्राप्त हैं, इसलिए (नः, जने) हमारे जैसे मनुष्यों में (श्रवयतम्) ज्ञानगति बढ़ायें (आ) और (मे) हमारी (हवा, इमा) इन प्राणापानरूप आहुतियों को (श्रुतम्) प्रवाहित करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य की स्वाभाविक गति इस ओर होती है कि वह अपने मन, प्राण तथा इन्द्रियों को संबोधन करके कुछ कथन करे, साहित्य में इसको स्वभावोत्ति अलंकार और दर्शनिकों की परिभाषा में उपचार कहते हैं, यहाँ पूर्वोक्त अलंकार से प्राणापान को संबोधन करके यह कथन किया है कि प्राणयाम द्वारा हमारी इन्द्रियों में इस प्रकार का बल उत्पत्र हो, जिससे वे सन्मार्ग से कभी च्युत न हों अर्थात् अपने संयम में तत्पर रहें और इनको “युवाना” विशेषण इसलिए दिया है कि जिस प्रकार अन्य शारीरिक तत्त्व वृद्धावस्था में जाकर जीर्ण हो जाते हैं, इस प्रकार प्राणों में कोई विकार उत्पत्र नहीं होता, नित्य नूतन रहने के कारण इनको “युवा” कहा गया है ॥५॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अथ स्वभावोक्त्यलङ्कारेण प्राणापानौ सम्बोध्य इन्द्रियसंयमः प्रार्थ्यते। 

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रावरुणा) हे प्राणापानरूपवायू ! (नः) अस्माकं (जीवसे) जीवनार्थं (प्र) विशेषतया (बाहवा) युवाभ्यां शक्तिरूपौ भुजौ (सिसृतम्) प्रसारयतम्, अपरञ्च (नः) अस्माकं (गव्यूतिम्) इन्द्रियगणं (घृतेन) सुस्निग्धतया सुमार्गे (उक्षतम्) सिञ्चतम्, हे प्राणापानौ ! भवन्तौ (युवाना) सदैव युवावस्थां प्राप्तौ, अत एव (नः) अस्माकं (जने) मादृशे मनुष्ये (आ) किञ्च (श्रुतम्) ज्ञानगतिं (श्रवयतम्) वर्द्धयतां (मे) मम (इमा, हवाः) प्राणापानरूपा आहुतीः (श्रुतम्) प्रवाहिताः कुरुताम् ॥५॥