पदार्थान्वयभाषाः - (यासु) जिन उपदेशक तथा अध्यापकों की क्रिया में (चित्रम्) विचित्र शक्तियें (न, ददृशे) नहीं देखी जातीं (न, यक्षम्) न जिनमें श्रद्धा का भाव है वे (विश्वा) सम्पूर्ण संसार में (इमाः, वृषणौ) अपनी वाणी की वृष्टि (न) नहीं कर सकते और जो (वाम्) तुम्हारे उपदेशक तथा अध्यापक (जनानाम्) मनुष्यों की (अनृता, द्रुहः, सचन्ते) निन्दा वा दुश्चरित्र कहते हैं, उनकी (निण्यानि) वाणियें (अचिते, अभूवन्) अज्ञान की नाशक नहीं होतीं, इसलिए (अमूरा) तुम लोग पूर्वोक्त दोषों से रहित होओ, यह परमात्मा का उपदेश है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जिन अध्यापक वा उपदेशकों में वाणी की विचित्रता नहीं पाई जाती और जिन की वेदादि सच्छास्त्रों में श्रद्धा नहीं है, उनके अज्ञाननिवृत्तिविषयक भाव संसार में कभी नहीं फैल सकते और न उनकी वाणी वृष्टि के समान सद्गुणरूप अङ्कुर उत्पन्न कर सकती है, इसी प्रकार जो अध्यापक वा उपदेशक रात्रि दिन निन्दा स्तुति में तत्पर रहते हैं, वे भी दूसरों की अज्ञानग्रन्थियों का छेदन नहीं कर सकते, इसलिए उचित है कि उपदेष्टा लोगों को निन्दा-स्तुति के भावों से सर्वथा वर्जित रहकर अपने हृदय में श्रद्धा के अङ्कुर दृढ़तापूर्वक जमाने चाहियें, ताकि सारा संसार आस्तिक भावों से विभूषित हो ॥५॥