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प्रोरोर्मि॑त्रावरुणा पृथि॒व्याः प्र दि॒व ऋ॒ष्वाद्बृ॑ह॒तः सु॑दानू । स्पशो॑ दधाथे॒ ओष॑धीषु वि॒क्ष्वृध॑ग्य॒तो अनि॑मिषं॒ रक्ष॑माणा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

proror mitrāvaruṇā pṛthivyāḥ pra diva ṛṣvād bṛhataḥ sudānū | spaśo dadhāthe oṣadhīṣu vikṣv ṛdhag yato animiṣaṁ rakṣamāṇā ||

पद पाठ

प्र । उ॒रोः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । पृ॒थि॒व्याः । प्र । दि॒वः । ऋ॒ष्वात् । बृ॒ह॒तः । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । स्पशः॑ । द॒धा॒थे॒ इति॑ । ओष॑धीषु । वि॒क्षु । ऋध॑क् । य॒तः । अनि॑ऽमिषम् । रक्ष॑माणा ॥ ७.६१.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:61» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब परमात्मा अध्यापक तथा उपदेशकों के कर्तव्य कर्मों का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रावरुणा) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! तुम (प्रोरोः) विस्तृत (पृथिव्याः) पृथिवी और (ऋष्वात्) बड़े (प्रदिवः) द्युलोक की विद्याओं का वर्णन करो, (यतः) क्योंकि आप लोग (बृहतः) बड़े-बड़े (सुदानू, स्पशः) दानी महाशयों के भावों को (दधाथे) धारण किये हुए हो और (ओषधीषु) ओषधियों द्वारा (अनिमिषम्) निरन्तर (विक्षु) सम्पूर्ण संसार की (रक्षमाणा) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे अध्यापक तथा उपदेशको ! तुम सत्य का प्रचार तथा ओषधियों=अन्नादि द्वारा प्रजा का भले प्रकार रक्षण करो अर्थात् अपने सदुपदेश द्वारा मानस रोगों की और ओषधियों द्वारा शारीरिक रोगों की चिकित्सा करके संसार में सर्वथा सुख फैलाने का उद्योग करो ॥३॥