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अयु॑क्त स॒प्त ह॒रितः॑ स॒धस्था॒द्या ईं॒ वह॑न्ति॒ सूर्यं॑ घृ॒ताचीः॑। धामा॑नि मित्रावरुणा यु॒वाकुः॒ सं यो यू॒थेव॒ जनि॑मानि॒ चष्टे॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayukta sapta haritaḥ sadhasthād yā īṁ vahanti sūryaṁ ghṛtācīḥ | dhāmāni mitrāvaruṇā yuvākuḥ saṁ yo yūtheva janimāni caṣṭe ||

पद पाठ

अयु॑क्त। स॒प्त। ह॒रितः॑। स॒धऽस्था॑त्। याः। ई॒म्। वह॑न्ति। सूर्य॑म्। घृ॒ताचीः॑। धामा॑नि। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। यु॒वाकुः॑। सम्। यः। यू॒थाऽइ॑व। जनि॑मानि। चष्टे॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:60» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (सप्त) सात (हरितः) दिशा और (याः) जो (घृताचीः) रात्रियाँ (सधस्थात्) तुल्य स्थान से (सूर्यम्) सूर्य्य को और (ईम्) जल को (वहन्ति) धारण करती हैं, वैसे (यः) जो (अयुक्त) युक्त होता है (धामानि) जन्म, स्थान और नाम को (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु को (युवाकुः) उत्तम प्रकार संयुक्त करनेवाला हुआ (यूथेव) समूहों के सदृश (जनिमानि) जन्मों को (सम्, चष्टे) प्रकाशित करता है, उसको आप लोग जनाइये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे पवन सूर्य्य लोकों को सब ओर से धारण करते हैं, वैसे विद्वान् जन सूर्य्य, प्राण और पृथिवी आदि की विद्या को जानें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा सप्त हरितो या घृताची रात्रयस्सधस्थात् सूर्यमीं वहन्ति तथा योऽयुक्त धामानि मित्रावरुणा युवाकुस्सन् यूथेव जनिमानि सं चष्टे तं यूयं बोधयत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयुक्त) युञ्जते (सप्त) एतत्संख्याकाः (हरितः) दिशः। हरित इति दिङ्नाम। (निघं०१.६)। (सधस्थात्) समानस्थानात् (याः) (ईम्) उदकम् (वहन्ति) (सूर्यम्) (घृताचीः) रात्रयः (धामानि) जन्मस्थाननामानि (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (युवाकुः) सुसंयोजकः (सम्) (यः) (यूथेव) यूथानि समूहा इव (जनिमानि) जन्मानि (चष्टे) प्रकाशयति ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा वायवस्सूर्यान् लोकान् सर्वतो वहन्ति तथा विद्वांसस्सूर्यप्राणपृथिव्यादिविद्या जानीयुः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वायू सूर्याला सर्व प्रकारे धारण करतात तसे विद्वान लोक सूर्य, प्राण व पृथ्वी इत्यादींची विद्या जाणतात. ॥ ३ ॥