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इ॒यं दे॑व पु॒रोहि॑तिर्यु॒वभ्यां॑ य॒ज्ञेषु॑ मित्रावरुणावकारि। विश्वा॑नि दु॒र्गा पि॑पृतं ति॒रो नो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iyaṁ deva purohitir yuvabhyāṁ yajñeṣu mitrāvaruṇāv akāri | viśvāni durgā pipṛtaṁ tiro no yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

इ॒यम्। दे॒व॒। पु॒रःऽहि॑तिः। यु॒वऽभ्या॑म्। य॒ज्ञेषु॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। अ॒का॒रि॒। विश्वा॑नि। दुः॒ऽगा। पि॒पृ॒त॒म्। ति॒रः। नः॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:60» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों से क्या किया जाता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो (देवा) दाता दोनों ! (युवभ्याम्) आप दोनों से (यज्ञेषु) विद्वानों के सत्काररूपी यज्ञ कर्मों में (इयम्) यह (पुरोहितिः) पहले हित की क्रिया (अकारि) की जाती है, वे दोनों आप (नः) हम लोगों के लिये (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुर्गा) दुःख से जाने योग्य कामों का (तिरः) तिरस्कार कर के आप दोनों (पिपृतम्) पूर्ण करिये और हे विद्वान् जनो ! (यूयम्) आप लोग (स्वस्तिभिः) कल्याणों से (नः) हम सब मनुष्यों की (सदा) सब काल में (पात) रक्षा कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जैसे आप दोनों सब के हित को करें, वैसे हम लोगों के दुष्ट व्यसनों को दूर कर के सब काल में हम लोगों की वृद्धि करें ॥१२॥ इस सूक्त में सूर्य्य आदि के दृष्टान्तों से विद्वानों के गुण और कृत्य के वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये ॥ यह साठवाँ सूक्त और द्वितीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं क्रियत इत्याह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणौ देवा ! युवभ्यां यज्ञेष्वियं पुरोहितिरकारि युवां नो विश्वानि तिरस्कृत्य पिपृतम्, हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नस्सर्वान् मनुष्यान् सदा पात ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) (देवा) दातारौ (पुरोहितिः) पुरस्ताद्धिता क्रिया (युवभ्याम्) (यज्ञेषु) विद्वत्सत्कारादिषु (मित्रावरुणौ) प्राणोदानवदध्यापकोपदेशकौ (अकारि) क्रियते (विश्वानि) सर्वाणि (दुर्गा) दुःखेन गन्तुं योग्यानि (पिपृतम्) पूरयतम् (तिरः) तिरस्क्रियायाम् (नः) अस्मान् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापकोपदेशकौ यथा भवन्तौ सर्वेषां हितं कुर्यातां तथाऽस्मत् दुर्व्यसनानि दूरीकृत्य सर्वदाऽस्मान् वर्धयतमिति ॥१२॥ अत्र सूर्यादिदृष्टान्तैर्विद्वद्गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्टितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! जसे तुम्ही दोघे सर्वांचे हित करता तसे आमच्या वाईट व्यसनांना दूर करून सर्वकाळी आमची वृद्धी करा. ॥ १२ ॥