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आ दे॒वो द॑दे बु॒ध्न्या॒३॒॑ वसू॑नि वैश्वान॒र उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य। आ स॑मु॒द्रादव॑रा॒दा पर॑स्मा॒दाग्निर्द॑दे दि॒व आ पृ॑थि॒व्याः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā devo dade budhnyā vasūni vaiśvānara uditā sūryasya | ā samudrād avarād ā parasmād āgnir dade diva ā pṛthivyāḥ ||

पद पाठ

आ। दे॒वः। द॒दे॒। बु॒ध्न्या॑। वसू॑नि। वै॒श्वा॒न॒रः। उत्ऽइ॑ता। सूर्य॑स्य। आ। स॒मु॒द्रात्। अव॑रात्। आ। पर॑स्मात्। आ। अ॒ग्निः। द॒दे॒। दि॒वः। आ। पृ॒थि॒व्याः ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:6» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:7 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन राजा प्रशंसित यशवाला होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का नायक (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (देवः) पूर्ण विद्वान् सुखदाता राजा जैसे (सूर्यस्य) सूर्य के (उदिता) उदय में (बुध्न्या) अन्तरिक्षस्थ (वसूनि) द्रव्य (आ) अच्छे प्रकार प्रकाशित होते हैं, वैसे जो न्याय और विद्या के प्रकाश को सब से (आददे) लेता है वा जैसे (परस्मात्) पर (अवरात्) तथा इधर हुए (आ, समुद्रात्) अन्तरिक्ष के जल पर्य्यन्त (दिवः) प्रकाश और (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच सूर्य्य प्रकाश को देता है, वैसे श्रेष्ठ गुणों का ग्रहण कर प्रजा के लिये हित (आददे) ग्रहण करता है वह (आ) अच्छे सुख से बढ़ता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - यदि विद्वान् लोग सत्य भाव से न्याय का संग्रह कर प्रजाओं का पुत्र के तुल्य पालन करें तो वे प्रजा में सूर्य के तुल्य प्रकाशित कीर्तिवाले होकर सब के लिये सुख देने को समर्थ होते हैं ॥७॥ इस सूक्त में वैश्वानर के दृष्टान्त से राजा के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह छठा सूक्त और नववाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

को राजा प्रशस्तयशा भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो वैश्वानरोऽग्निरिव देवो राजा यथा सूर्यस्योदिता बुध्न्या वसून्यासमन्तात् प्रकाशितानि जायन्ते तथा यो न्यायविद्याप्रकाशं सर्वेभ्य आददे यथा परस्मादादवरादासमुद्राद् दिवः पृथिव्याश्च मध्ये सूर्यः प्रकाशं प्रयच्छति तथा सद्गुणानादाय प्रजाभ्यो हितमाददे स आ समन्तात्सुखेन वर्धते ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (देवः) पूर्णविद्यः सुखप्रदः (ददे) ददाति (बुध्न्या) बुध्न्यान्यन्तरिक्षस्थानि (वसूनि) द्रव्याणि (वैश्वानरः) विश्वेषां नराणामयं नायकः (उदिता) उदितावुदये (सूर्यस्य) (आ) (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (अवरात्) अर्वाचीनात् (आ) (परस्मात्) (आ) (अग्निः) पावक इव वर्त्तमानः (ददे) ददाति (दिवः) प्रकाशस्य (आ) (पृथिव्याः) भूमेर्मध्ये ॥७॥
भावार्थभाषाः - यदि विद्वांसः सत्यभावेन न्यायं संगृह्य प्रजाः पुत्रवत्पालयेयुस्तर्हिते प्रजामध्ये सूर्य इव प्रशस्तयशसो भूत्वा इति सर्वेभ्यः सुखं दातुं शक्नुवन्तीति ॥७॥ अत्र वैश्वानरदृष्टान्तेन राजकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्ठं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी सत्याने न्यायपूर्वक प्रजेचे पुत्राप्रमाणे पालन केल्यास ते प्रजेमध्ये सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होऊन कीर्तिमान बनतात व सर्वांना सुख देण्यास समर्थ होतात. ॥ ७ ॥