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यं त्राय॑ध्व इ॒दमि॑दं॒ देवा॑सो॒ यं च॒ नय॑थ। तस्मा॑ अग्ने॒ वरु॑ण॒ मित्रार्य॑म॒न्मरु॑तः॒ शर्म॑ यच्छत ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ trāyadhva idam-idaṁ devāso yaṁ ca nayatha | tasmā agne varuṇa mitrāryaman marutaḥ śarma yacchata ||

पद पाठ

यम्। त्राय॑ध्वे। इ॒दम्ऽइ॑दम्। देवा॑सः। यम्। च॒। नय॑थ। तस्मै॑। अ॒ग्ने॒। वरु॑ण। मित्र॑। अर्य॑मन्। मरु॑तः। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:59» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बारह ऋचावाले उनसठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) प्राणों के सदृश अग्रणी (देवासः) विद्वान् ! आप लोग (इदमिदम्) इस-इस वचन को सुनाय के वा कर्म करके (यम्) जिसको (नयथ) प्राप्त कराइये (यम्, च) और जिस मनुष्य की (त्रायध्वे) रक्षा करें (तस्मै) उसके लिये (शर्म) सुख वा गृह (यच्छत) दीजिये और हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) मित्र (अर्यमन्) न्यायकारी ! आप इन्हीं की सदा सेवा करिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् जनो ! आप लोग सत्य उपदेश, उत्तम शिक्षा और विद्या दान से सब मनुष्यों की उत्तम प्रकार रक्षा करके वृद्धि करिये, जिससे सब सुखी होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं कर्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतो देवासो ! यूयमिदमिदं यन्नयथ यं च त्रायध्ये तस्मै शर्म यच्छत, हे अग्ने वरुण मित्रार्यमँस्त्वमेतानेव सदा सेवस्व ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (त्रायध्वे) रक्षथ (इदमिदम्) वचनं श्रावयिता कर्म कृत्वा वा (देवासः) प्राणा इव विद्वांसः (यम्) नरम् (च) (नयथ) प्रापयथ (तस्मै) (अग्ने) (वरुण) श्रेष्ठ (मित्र) सखे (अर्यमन्) न्यायकारिन् (मरुतः) प्राण इव नेतारः (शर्म) सुखं गृहं वा (यच्छत) दत्त ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! भवन्तस्सत्योपदेशसुशिक्षाविद्यादानेन सर्वान् मनुष्यान् सम्यग्रक्षित्वा वर्धन्तु येन सर्वे सुखिनः स्युः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायूच्या दृष्टान्ताने विद्वान व ईश्वराच्या गुण व कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! तुम्ही सत्य उपदेश, उत्तम शिक्षण व विद्यादानाने सर्व माणसांचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून उन्नती करा. ज्यामुळे सर्व सुखी व्हावेत. ॥ १ ॥