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नैताव॑द॒न्ये म॒रुतो॒ यथे॒मे भ्राज॑न्ते रु॒क्मैरायु॑धैस्त॒नूभिः॑। आ रोद॑सी विश्व॒पिशः॑ पिशा॒नाः स॑मा॒नम॒ञ्ज्य॑ञ्जते शु॒भे कम् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

naitāvad anye maruto yatheme bhrājante rukmair āyudhais tanūbhiḥ | ā rodasī viśvapiśaḥ piśānāḥ samānam añjy añjate śubhe kam ||

पद पाठ

न। ए॒ताव॑त्। अ॒न्ये। म॒रुतः॑। यथा॑। इ॒मे। भ्राज॑न्ते। रु॒क्मैः। आयु॑धैः। त॒नूभिः॑। आ। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒श्व॒ऽपिशः॑। पि॒शा॒नाः। स॒मा॒नम्। अ॒ञ्जि। अ॒ञ्ज॒ते॒। शु॒भे। कम् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:57» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे विद्वान् जन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (यथा) जैसे (इमे) ये (मरुतः) वायु के सदृश मनुष्य (रुक्मैः) प्रकाशमान (आयुधैः) आयुधों और (तनूभिः) शरीरों के साथ (भ्राजन्ते) प्रकाशित होते हैं और (विश्वपिशः) संसार के अवयवभूत (पिशानाः) उत्तम प्रकार चूर्ण करते हुए (शुभे) सुन्दरता के लिये (समानम्) तुल्य (अञ्जि) गमन को और (कम्) सुख को (अञ्जते) व्यतीत करते हैं तथा (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (आ) सब ओर से प्रकाशित करते हैं (न) न (एतावत्) इतना ही (अन्ये) अन्य करने को समर्थ होते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् शूरवीर जन शरीर और आत्मा के बल से युक्त और श्रेष्ठ आयुधों से युक्त हुए सङ्ग्रामों में प्रकाशित होते हैं, वैसे भीरु मनुष्य नहीं प्रकाशित होते हैं, जैसे प्राण सब जगत् को आनन्दित करते हैं, वैसे विद्वान् सब को सुखी करते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथेमे मरुतो रुक्मैरायुधैस्तनूभिस्सह भ्राजन्ते विश्वपिशः पिशानाः शुभे समानमञ्चि कमञ्जते रोदसी आ भ्राजन्ते नैतावदन्ये कर्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (एतावत्) (अन्ये) (मरुतः) वायुवन्मनुष्याः (यथा) (इमे) (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (रुक्मैः) देदीप्यमानैः (आयुधैः) (तनूभिः) शरीरैः (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (विश्वपिशः) विश्वस्यावयवभूताः (पिशानाः) संचूर्णयन्तः (समानम्) तुल्यम् (अञ्जि) गमनम् (अञ्जते) गच्छन्ति व्यक्तिं कुर्वन्ति (शुभे) शोभनाय (कम्) सुखम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्याः ! यथा विद्वांसः शूरवीरा शरीरात्मबलयुक्ताः स्वायुधाः संग्रामेषु प्रकाशन्ते तथा भीरवो मनुष्या न प्रकाशन्ते यथा प्राणस्सर्वं जगदानन्दयन्ति तथा विद्वांसस्सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान शूरवीर पुरुष शरीर व आत्म्याच्या बलाने युक्त होऊन व श्रेष्ठ आयुधांनी युक्त होऊन युद्धात प्रकट होतात, तसे भित्री माणसे प्रकट होत नाहीत. जसे प्राण सर्व जगाला आनंदित करतात तसे विद्वान सर्वांना सुखी करतात. ॥ ३ ॥