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देवता: मरुतः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इ॒मे र॒ध्रं चि॑न्म॒रुतो॑ जुनन्ति॒ भृमिं॑ चि॒द्यथा॒ वस॑वो जु॒षन्त॑। अप॑ बाधध्वं वृषण॒स्तमां॑सि ध॒त्त विश्वं॒ तन॑यं तो॒कम॒स्मे ॥२०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ime radhraṁ cin maruto junanti bhṛmiṁ cid yathā vasavo juṣanta | apa bādhadhvaṁ vṛṣaṇas tamāṁsi dhatta viśvaṁ tanayaṁ tokam asme ||

पद पाठ

इ॒मे। र॒ध्रम्। चि॒त्। म॒रुतः॑। जु॒न॒न्ति॒। भृमि॑म्। चि॒त्। यथा॑। वस॑वः। जु॒षन्त॑। अप॑। बा॒ध॒ध्व॒म्। वृ॒ष॒णः॒। तमां॑सि। ध॒त्त। विश्व॑म्। तन॑यम्। तो॒कम्। अ॒स्मे इति॑ ॥२०॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:56» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजजन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणः) बलिष्ठो (वसवः) निवास करानेवालो ! तुम (यथा) जैसे (इमे) यह (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान (रध्रम्) समृद्धिमान् (चित्) ही को (जुनन्ति) प्रेरणा करते हैं और (भृमिम्) घूमनेवाले को (चित्) ही (जुषन्त) सेवते हैं, वैसे और जैसे सूर्य अन्धकारों को वैसे (तमांसि) रात्रि के समान वर्त्तमान दुष्ट शत्रुओं को (अप, बाधध्वम्) अत्यन्त बाधा देओ और (अस्मे) हम लोगों में (विश्वम्) समस्त (तनयम्) विस्तारयुक्त शुभ गुण-कर्म-स्वभाववाले (तोकम्) सन्तान को (धत्त) धारण करो ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्राणायामादिकों से अच्छे सिद्ध किये हुए पवन समृद्धि और कुपथ्य से सेवन किये दरिद्रता को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही सेवन किये हुए विद्वान् राज्य की वृद्धि और अपमान किये हुए राज्य का भङ्ग उत्पन्न करते हैं, अच्छी शिक्षा दिये और सत्कार कर रक्षा किये हुए शूरवीर जैसे शत्रुओं को नष्ट करते हैं, वैसे वर्त्तकर प्रजाजनों में उत्तम सन्तान राजजन उत्पन्न करावें ॥२०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजजनाः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वृषणो वसवो ! यूयं यथेमे मरुतो रध्रं चित् जुनन्ति भृमिं चित् जुषन्त तथा यूयं सूर्यस्तमांसीव शत्रूनप बाधध्वमस्मे विश्वं तनयं तोकं धत्त ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) (रध्रम्) समृद्धिमन्तम् (चित्) अपि (मरुतः) वायव इव मनुष्याः (जुनन्ति) प्रेरयन्ति (भृमिम्) भ्रमणशीलम् (चित्) अपि (यथा) (वसवः) वासयितारः (जुषन्त) सेवन्ते (अप) (बाधध्वम्) (वृषणः) बलिष्ठाः (तमांसि) रात्रिरिव वर्तमानान् दुष्टान् जनान् (धत्त) (विश्वम्) सर्वम् (तनयम्) विस्तीर्णशुभगुणकर्मस्वभावम् (तोकम्) अपत्यम् (अस्मे) अस्मासु ॥२०॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा प्राणायामादिभिः सुसाधिता वायवस्समृद्धिं कुपथ्येन सेविता दारिद्र्यं च जनयन्ति तथैव सेविता विद्वांसो राज्यर्द्धिमपमानिता राज्यभङ्गं जनयन्ति सुशिक्ष्य सत्कृत्य रक्षिताः शूरवीरा यथा शत्रूनपबाधन्ते तथा वर्तित्वा प्रजासूत्तमान्यपत्यानि राजजना नयन्तु ॥२०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्राणायाम इत्यादीने चांगल्या प्रकारे सिद्ध केलेले वायू समृद्ध करतात व कुपथ्याने ग्रहण केलेले (वायू) दारिद्र्य उत्पन्न करतात तसेच स्वीकारलेले विद्वान राज्याची वृद्धी वाढवितात व अपमान झालेले राज्य नष्ट करतात. चांगले शिक्षण, सत्कार व रक्षण केलेले शूरवीर जसे शत्रूंना नष्ट करतात तसे वागून राजजनांनी प्रजेमध्ये उत्तम संतान निर्माण करावयास लावावे. ॥ २० ॥