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यदि॑ स्तु॒तस्य॑ मरुतो अधी॒थेत्था विप्र॑स्य वा॒जिनो॒ हवी॑मन्। म॒क्षू रा॒यः सु॒वीर्य॑स्य दात॒ नू चि॒द्यम॒न्य आ॒दभ॒दरा॑वा ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadi stutasya maruto adhīthetthā viprasya vājino havīman | makṣū rāyaḥ suvīryasya dāta nū cid yam anya ādabhad arāvā ||

पद पाठ

यदि॑। स्तु॒तस्य॑। म॒रु॒तः॒। अ॒धि॒ऽइ॒थ। इ॒त्था। विप्र॑स्य। वा॒जिनः॑। हवी॑मन्। म॒क्षु। रा॒यः। सु॒ऽवीर्य॑स्य। दा॒त॒। नु। चि॒त्। यम्। अ॒न्यः। आ॒ऽदभ॑त्। अरा॑वा ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:56» मन्त्र:15 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे मनुष्य कैसे प्रसिद्ध हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान मनुष्यो ! (यदि) यदि (स्तुतस्य) प्रशंसित (वाजिनः) वेगयुक्त (विप्रस्य) मेधावी जन के (हवीमन्) जिस में देने योग्य वस्तु विद्यमान उस व्यवहार में (इत्था) इस प्रकार से (मक्षू) शीघ्र (अधीथ) स्मरण करो (सुवीर्यस्य) और जिन के सम्बन्ध में शुभ वीर्य होता उस (रायः) धन को (दात) देओ (चित्) और (यम्) जिसको (अन्यः) अन्य (अरावा) न देनेवाला जन (नु) शीघ्र (आदभत्) नष्ट करें तो क्या-क्या विचार न हो ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् के समीप से पढ़ते हैं, वे समर्थ अर्थात् विद्यासम्पन्न हो धनपति होते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते मनुष्याः कीदृशा जायेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! यदि स्तुतस्य वाजिनो विप्रस्य हवीमन्नित्था मक्ष्वधीथ सुवीर्यस्य रायो दात चिदपि यमन्योऽरावा न्वादभत् तर्हि किं किं विमर्शनं न जायेत ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) (स्तुतस्य) (मरुतः) वायव इव (अधीथ) (इत्था) अनेन प्रकारेण (विप्रस्य) मेधाविनः (वाजिनः) वेगयुक्तस्य (हवीमन्) हवींषि दातव्यानि वसूनि विद्यन्ते यस्मिन् (मक्षू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (रायः) धनस्य (सुवीर्यस्य) शोभनं वीर्यं यस्मात्तस्य (दात) दत्त (नु) शीघ्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (यम्) (अन्यः) (आदभत्) हिंस्यात् (अरावा) अदाता अवचनो वा ॥१५॥
भावार्थभाषाः - ये विदुषः सकाशादधीयते ते समर्था भूत्वा धनस्वामिनो जायन्ते ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वानांजवळ शिकतात ते समर्थ असतात. अर्थात् विद्या संपन्न बनून धनपती होतात. ॥ १५ ॥