वास्तो॑ष्पते॒ प्रति॑ जानीह्य॒स्मान्त्स्वा॑वे॒शो अ॑नमी॒वो भ॑वा नः। यत्त्वेम॑हे॒ प्रति॒ तन्नो॑ जुषस्व॒ शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥१॥
vāstoṣ pate prati jānīhy asmān svāveśo anamīvo bhavā naḥ | yat tvemahe prati tan no juṣasva śaṁ no bhava dvipade śaṁ catuṣpade ||
वास्तोः॑। प॒ते॒। प्रति॑। जा॒नी॒हि॒। अ॒स्मान्। सु॒ऽआ॒वे॒शः। अ॒न॒मी॒वः। भ॒व॒। नः॒। यत्। त्वा॒। ईम॑हे। प्रति॑। तत्। नः॒। जु॒ष॒स्व॒। शम्। नः॒। भ॒व॒। द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतुः॑ऽपदे ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीन ऋचावाले चौवनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य घर बना कर उस में क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्या गृहं निर्माय तत्र किं कुर्वन्तीत्याह ॥
हे वास्तोष्पते गृहस्थ ! त्वमस्मान् प्रति जानीहि त्वमत्र नो गृहे स्वावेशोऽनमीवो भव यद्यत्र वयं त्वेमहे तन्नः प्रति जुषस्व त्वन्नो द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात गृहस्थाचे गुण-कर्म यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.