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उ॒तो हि वां॑ रत्न॒धेया॑नि॒ सन्ति॑ पु॒रूणि॑ द्यावापृथिवी सु॒दासे॑। अ॒स्मे ध॑त्तं॒ यदस॒दस्कृ॑धोयु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uto hi vāṁ ratnadheyāni santi purūṇi dyāvāpṛthivī sudāse | asme dhattaṁ yad asad askṛdhoyu yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒तो इति॑। हि। वा॒म्। र॒त्न॒ऽधेया॑नि। सन्ति॑। पु॒रूणि॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑। सु॒ऽदासे॑। अ॒स्मे इति॑। ध॒त्त॒म्। यत्। अस॑त्। अस्कृ॑धोयु। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:53» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को भूमि आदि के गुण जानने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! जो (सुदासे) सुन्दर दानशीलोंवाले (द्यावापृथिवी) भूमि और बिजुली वर्त्तमान हैं अथवा जिनमें (वाम्) तुम दोनों के (हि) ही (पुरूणि) बहुत (रत्नधेयानि) रत्न जिनमें भरे जाते (सन्ति) हैं वे धन धरने के पदार्थ हैं (ते) वे भूमि और बिजुली (अस्मे) हम लोगों में (धत्तम्) धारण करें (यत्) जो (उतो) कुछ भी (अस्कृधोयु) कृश हो अर्थात् मोटा न (असत्) हो उसके साथ (युवम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (वः) हम लोगों की (सदा) सदा (पात) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बिजुली और भूमि के गुणों को जान कर वहाँ स्थित जो रत्न उनको पाकर सब के लिये सुख का विधान करते हैं, वे सब ओर से सदा सुरक्षित होते हैं ॥३॥ इस सूक्त में द्यावापृथिवी के गुणों और कृत्यों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह त्रेपनवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कल्याणकारी माता-पिता

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - हे (द्यावा-पृथिवी) = भूमि, विद्युत् के तुल्य माता-पिताओ! (सु-दासे) = आप दोनों उत्तम भृत्यों से युक्त होओ। अथवा दानशील के लिये (वां) = आप दोनों के (पुरूणि रत्न धेयानि) = बहुत सुन्दर ऐश्वर्य (सन्ति) = हैं । (यत्) = जो भी (अस्कृधोयुः) = बहुत जीवनप्रद (असत्) = हो वह (अस्मे धत्तं) = हमें दो। (यूयं) = आप लोग (स्वस्तिभिः) = कल्याणकारी साधनों से (नः पात) = हमारी रक्षा करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उत्तम माता-पिता अपनी सन्तानों तथा सेवकों के लिए उत्तम- उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करते हैं। श्रेष्ठ शिक्षाओं के द्वारा उन्हें अनन्त जीवन जीने की प्रेरणा देकर उनका कल्याण करते हैं । अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और वास्तोष्पति देवता हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैर्भूम्यादिगुणा वेदितव्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! ये सुदासे द्यावापृथिवी वर्तेते यत्र वां हि पुरूणि रत्नधेयानि धनाधिकरणानि सन्ति ते अस्मे धत्तं यदुतो अस्कृधोयु असत् येन सहिता यूयं स्वस्तिभिर्नस्सदा पात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उतो) अपि (हि) (वाम्) युवयोः (रत्नधेयानि) रत्नानि धीयन्ते येषु तानि (सन्ति) (पुरूणि) बहूनि (द्यावापृथिवी) भूमिविद्युतौ (सुदासे) शोभना दासाः दातारो ययोस्ते (अस्मे) अस्मासु (धत्तम्) धरेतम् (यत्) (असत्) भवेत् (अस्कृधोयु) अस्थूलम् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्युद्भूमिगुणान् विज्ञाय तत्रस्थानि रत्नानि प्राप्य सर्वार्थं सुखं विदधति ते सर्वतस्सदा सुरक्षिता भवन्तीति ॥३॥ अत्र द्यावापृथिवीगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O sun and nature, fatherly sun and mother earth, generous givers of all time, yours are the jewel treasures of life for the generous giver, whatever they are. Bear and bring us whatever be the finest and most abundant gifts of your eternal jewels. Pray preserve, protect and promote us for all time with peace, happiness and well being.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्युत व भूमीच्या गुणांना जाणून तेथे स्थित असलेली रत्ने प्राप्त करून सर्वांना सुख देतात ती सगळीकडून सदैव सुरक्षित असतात. ॥ ३ ॥