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तु॒र॒ण्यवोऽङ्गि॑रसो नक्षन्त॒ रत्नं॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुरि॑या॒नाः। पि॒ता च॒ तन्नो॑ म॒हान्यज॑त्रो॒ विश्वे॑ दे॒वाः सम॑नसो जुषन्त ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

turaṇyavo ṅgiraso nakṣanta ratnaṁ devasya savitur iyānāḥ | pitā ca tan no mahān yajatro viśve devāḥ samanaso juṣanta ||

पद पाठ

तु॒र॒ण्यवः॑। अङ्गि॑रसः। न॒क्ष॒न्त॒। रत्न॑म्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। इ॒या॒नाः। पि॒ता। च॒। तत्। नः॒। म॒हान्। यज॑त्रः। विश्वे॑। दे॒वाः। सऽम॑नसः। जु॒ष॒न्त॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:52» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किसके तुल्य होकर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (तुरण्यवः) शीघ्र करनेवाले (अङ्गिरसः) प्राणों के समान (समनसः) समान अन्तःकरण युक्त (इयानाः) पढ़ते हुए जन (सवितुः) सकल जगत् उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) प्रकाशमान परमेश्वर की सृष्टि में जिस (रत्नम्) रमणीय धन को (नक्षन्त) व्याप्त हो (तत्) वह (पिता) उत्पन्न करनेवाले के समान वर्त्तमान (महान्) सब से सत्कार (यजत्रः) सङ्ग और ध्यान करने योग्य ईश्वर (विश्वे, देवाः, च) और सब विद्वान् जन (नः) हम लोगों के लिये (जुषन्त) सेवें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन इस ईश्वरकृत सृष्टि में विद्या पुरुषार्थ और विद्वानों की सेवा आदि से सब सुखों को पाते हैं, वैसे आप प्राप्त हों, सब मिल कर पिता के समान पालना करनेवाले परमात्मा की निरन्तर उपासना करें ॥३॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बावनवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किंवद्भूत्वा किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये तुरण्यवोऽङ्गिरसस्समनस इयाना जनाः सवितुर्देवस्य सृष्टौ यद्रत्नं नक्षन्त तत्पितेव वर्तमानो महान् यजत्र ईश्वरो विश्वे देवाश्च नोऽस्मभ्यं जुषन्त ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुरण्यवः) क्षिप्रं कर्तारः (अङ्गिरसः) प्राणा इव (नक्षन्त) व्याप्नुवन्तु (रत्नम्) रमणीयं धनम् (देवस्य) प्रकाशमानस्य (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य परमेश्वरस्य (इयानाः) अधीयमानाः (पिता) जनक इव (च) (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (महान्) पूजनीयः सर्वेभ्यो महान् (यजत्रः) सङ्गन्तव्यो ध्येयः (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (समनसः) समानं मनोऽन्तःकरणं येषां ते (जुषन्त) सेवन्ताम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्वांसोऽस्यामीश्वरकृतसृष्टौ विद्यापुरुषार्थविद्वत्सेवाद्यैः सर्वाणि सुखानि लभन्ते तथा भवन्तो लभन्तां सर्वे मिलित्वा पितृवत्पालकं परमात्मानं सततमुपासीरन्निति ॥३॥ अत्र विश्वेदेवगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्विपञ्चाशत्तमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक या ईश्वरकृत सृष्टीमध्ये विद्या, पुरुषार्थ व विद्वानांची सेवा इत्यादीने सर्व सुख प्राप्त करतात तसे तुम्हीही प्राप्त करा. सर्वांनी मिळून पित्याप्रमाणे पालन करणाऱ्या परमात्म्याची निरंतर उपासना करा. ॥ ३ ॥