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आ॒दि॒त्या विश्वे॑ म॒रुत॑श्च॒ विश्वे॑ दे॒वाश्च॒ विश्व॑ ऋ॒भव॑श्च॒ विश्वे॑। इन्द्रो॑ अ॒ग्निर॒श्विना॑ तुष्टुवा॒ना यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ādityā viśve marutaś ca viśve devāś ca viśva ṛbhavaś ca viśve | indro agnir aśvinā tuṣṭuvānā yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

आ॒दि॒त्याः। विश्वे॑। म॒रुतः॑। च॒। विश्वे॑। दे॒वाः। च॒। विश्वे॑। ऋ॒भवः॑। च॒। विश्वे॑। इन्द्रः॑। अ॒ग्निः। अ॒श्विना॑। तु॒स्तु॒वा॒नाः। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:51» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किसकी रक्षा से सब सुख होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वे) सब (आदित्याः) संवत्सर के महीनों के समान विद्यावृद्ध (विश्वे, मरुतः च) और समस्त (विश्वे, देवाः, च) और समस्त विद्वान् (विश्वे, ऋभवः, च) और बुद्धिमान् जन (इन्द्रः) बिजुली (अग्निः) साधारण अग्नि (अश्विना) सूर्य चन्द्रमा (तुष्टुवानाः) प्रशंसा करते हुए विद्वान् जन तथा (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस देश में सब विद्वान् जन बुद्धिमान् चतुर धार्मिक और रक्षा करने और विद्या देनेवाले उपदेशक हैं, वहाँ सब से रक्षायुक्त होकर सब सुखी होते हैं ॥३॥ इस सूक्त में सूर्य के समान विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केषां रक्षणेन सर्वं सुखं संभवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे विश्व आदित्या विश्वे मरुतश्च विश्वे देवाश्च विश्वे ऋभवश्च इन्द्रोऽग्निरश्विना तुष्टुवाना विद्वांसो यूयं स्वस्तिभिर्नस्सदा पात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्याः) संवत्सरस्य मासा इव विद्यावृद्धाः (विश्वे) सर्वे (मरुतः) मनुष्याः (च) (विश्वे) (देवाः) विद्वांसः (च) (विश्वे) अखिलाः (ऋभवः) मेधाविनः (च) (विश्वे) (इन्द्रः) विद्युत् (अग्निः) (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (तुष्टुवानाः) प्रशंसन्तः (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) समग्रैस्सुखैः (सदा) (नः) अस्माकम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - यस्मिन्देशे सर्वे विद्वांसो धीमन्तः चतुरा धार्मिकाश्च रक्षका विद्याप्रदा उपदेशकास्सन्ति तत्र सर्वतो रक्षिता भूत्वा सर्वे सुखिनो भवन्तीति ॥३॥ अत्रादित्यवद् विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकपञ्चाशत्तमं सूक्त्मष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या देशात सर्व विद्वान लोक बुद्धिमान, चतुर, धार्मिक व रक्षक तसेच विद्यादान करणारे अध्यापक असतात तेथे सर्वांचे रक्षण होऊन सर्व जण सुखी होतात. ॥ ३ ॥