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आ मां मि॑त्रावरुणे॒ह र॑क्षतं कुला॒यय॑द्वि॒श्वय॒न्मा न॒ आ ग॑न्। अ॒ज॒का॒वं दु॒र्दृशी॑कं ति॒रो द॑धे॒ मा मां पद्ये॑न॒ रप॑सा विद॒त्त्सरुः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā mām mitrāvaruṇeha rakṣataṁ kulāyayad viśvayan mā na ā gan | ajakāvaṁ durdṛśīkaṁ tiro dadhe mā mām padyena rapasā vidat tsaruḥ ||

पद पाठ

आ। माम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। इ॒ह। र॒क्ष॒त॒म्। कु॒ला॒यय॑त्। वि॒ऽश्वय॑त्। मा। नः॒। आ। ग॒न्। अ॒ज॒का॒ऽवम्। दुः॒ऽदृशी॑कम्। ति॒रः। द॒धे॒। मा। माम्। पद्ये॑न। रप॑सा। वि॒द॒त्। त्सरुः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:50» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चार ऋचावाले पचासवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को इस संसार में क्या आचरण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशक ! तुम (इह) इस संसार में जो मैं (कुलाययत्) कुल की उन्नति चाहता हुआ (विश्वयत्) सब काम करनेवाला (दुर्दृशीकम्) दुःख से देखने योग्य (अजकावम्) जीवों को पीड़ा देता उसको (तिरोदधे) निवारणे करता हूँ वह (त्सरुः) कुटिल गति रोग (पद्येन) प्राप्त होने योग्य (रपसा) पाप से (माम्) मुझे (मा) मत (विदत्) प्राप्त हो कोई पीड़ा (नः) हम लोगों को (मा) मत (आ, गन्) प्राप्त हो इससे (माम्) मेरी (आ, रक्षतम्) सब ओर से रक्षा करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को पापाचरण वा कुपथ्य कभी न करना चाहिये जिससे कभी रोगप्राप्ति न हो, जो इस संसार में अध्यापक और उपदेशक हैं, वे पढ़ाने और उपदेश करने से सब को अरोगी कर सीधे और उद्योगी करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किमत्रानुष्ठेयमित्याह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणा ! युवामिह योऽहं कुलाययद्विश्वयद् दुर्दृशीकमजकावं तिरोदधे त्सरू रोगः पद्येन रपसा मां मा विदत् कापि पीडा नोऽस्मान् मा आगन् तस्मान्मां रक्षतम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (माम्) (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविवाध्यापकोपदेशकौ (इह) अस्मिन् संसारे (रक्षतम्) (कुलाययत्) कुलायं कुलोन्नतिं कामयमानः (विश्वयत्) यो विश्वं करोति सः (मा) निषेधे (नः) अस्मान् (आ) (गन्) आगच्छेत् प्राप्नुयात् (अजकावम्) योऽजान् जीवान् कावयति पीडयति तम् (दुर्दृशीकम्) दुःखेन द्रष्टुं योग्यम् (तिरः) (दधे) निवारयामि (मा) निषेधे (माम्) (पद्येन) प्राप्तुं योग्येन (रपसा) पापेन (विदत्) प्राप्नुयात् (त्सरुः) कुटिलगतिः ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः कदापि पापाचरणं कुपथ्यं च न कार्यं येन कदाचिद् रोगप्राप्तिर्न स्यात् येऽत्र संसारे अध्यापकोपदेशकास्सन्ति तेऽध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वानरोगान् कृत्वा सरलानुद्योगिनः कुर्वन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात जल व औषधी विष यांचे निवारण करून शुद्ध सेवन केले पाहिजे हे सांगितलेले आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - माणसांनी पापाचरण किंवा कुपथ्य कधीही करू नये. ज्यामुळे रोग होऊ शकतो. या जगात जे अध्यापक व उपदेशक आहेत त्यांच्या अध्यापनामुळे व उपदेशामुळे सर्वांनी निरोगी व उद्योगी व्हावे. ॥ १ ॥