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नू दे॑वासो॒ वरि॑वः कर्तना नो भू॒त नो॒ विश्वेऽव॑से स॒जोषाः॑। सम॒स्मे इषं॒ वस॑वो ददीरन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū devāso varivaḥ kartanā no bhūta no viśve vase sajoṣāḥ | sam asme iṣaṁ vasavo dadīran yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

नु। दे॒वा॒सः॒। वरि॑वः। क॒र्त॒न॒। नः॒। भू॒त। नः॒। विश्वे॑। अव॑से। स॒ऽजोषाः॑। सम्। अ॒स्मे इति॑। इष॑म्। वस॑वः। द॒दी॒र॒न्। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:48» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजादिकों से विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सजोषाः) समान प्रीति के सेवनेवाले (वसवः) विद्या में निवासकर्त्ता (विश्वे) समस्त (देवासः) विद्वान् जनो ! तुम (नः) हमारा (वरिवः) सेवन (कर्त्तन) करो (नः) हमारी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (नु) शीघ्र (भूत) संनद्ध होओ (अस्मे) हमारे लिये (इषम्) अन्न वा विज्ञान को (सम्, ददरीन्) अच्छे प्रकार देओ (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हमारी (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् राजजनो ! तुम हम लोगों की और प्रजाजनों की निरन्तर रक्षा करो, सर्वदा विज्ञान और अन्न आदि ऐश्वर्य को देओ, ऐसा करो तो तुम लोगों की हम निरन्तर रक्षा करें ॥४॥ इस मन्त्र में विद्वानों के गुण और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अड़तालीसवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजादिभिर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे सजोषा वसवो विश्वे देवासो ! यूयं नो वरिवः कर्त्तन नोऽवसे नु भूताऽस्मे इषं संददीरन् यूयं स्वस्तिभिर्नस्सदा पात ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नु) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (देवासः) विद्वांसः (वरिवः) (कर्तना) कुर्यात्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (भूत) भवत (नः) अस्माकम् (विश्वे) सर्वे (अवसे) रक्षणाद्याय (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः। अत्र वचनव्यत्ययेन जसः स्थाने सुः। (सम्) (अस्मे) अस्मभ्यम् (इषम्) अन्नं विज्ञानं वा (वसवः) ये विद्यायां वसन्ति ते (ददीरन्) प्रयच्छेयुः (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! राजजना यूयमस्मान् प्रजाः सततं रक्षत सर्वदा विज्ञानमन्नाद्यैश्वर्यं च प्रयच्छत एवं कृते सति युष्मान् वयं सततं रक्षेमेति ॥४॥ अत्र विद्वद्गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टचत्वारिंशत्तमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वान राजजनांनो ! तुम्ही आमचे व प्रजेचे निरंतर रक्षण करा. सदैव विज्ञान व अन्न इत्यादी ऐश्वर्य द्या. असे करण्याने आम्ही तुमचे निरंतर रक्षण करू. ॥ ४ ॥
टिप्पणी: या मंत्रात विद्वानांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.