नू दे॑वासो॒ वरि॑वः कर्तना नो भू॒त नो॒ विश्वेऽव॑से स॒जोषाः॑। सम॒स्मे इषं॒ वस॑वो ददीरन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥४॥
nū devāso varivaḥ kartanā no bhūta no viśve vase sajoṣāḥ | sam asme iṣaṁ vasavo dadīran yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||
नु। दे॒वा॒सः॒। वरि॑वः। क॒र्त॒न॒। नः॒। भू॒त। नः॒। विश्वे॑। अव॑से। स॒ऽजोषाः॑। सम्। अ॒स्मे इति॑। इष॑म्। वस॑वः। द॒दी॒र॒न्। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥४॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर राजादिकों से विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुना राजादिभिर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे सजोषा वसवो विश्वे देवासो ! यूयं नो वरिवः कर्त्तन नोऽवसे नु भूताऽस्मे इषं संददीरन् यूयं स्वस्तिभिर्नस्सदा पात ॥४॥