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ऋ॒भुर्ऋ॒भुभि॑र॒भि वः॑ स्याम॒ विभ्वो॑ वि॒भुभिः॒ शव॑सा॒ शवां॑सि। वाजो॑ अ॒स्माँ अ॑वतु॒ वाज॑साता॒विन्द्रे॑ण यु॒जा त॑रुषेम वृ॒त्रम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛbhur ṛbhubhir abhi vaḥ syāma vibhvo vibhubhiḥ śavasā śavāṁsi | vājo asmām̐ avatu vājasātāv indreṇa yujā taruṣema vṛtram ||

पद पाठ

ऋ॒भुः। ऋ॒भुऽभिः॑। अ॒भि। वः॒। स्या॒म॒। विऽभ्वः॑। वि॒भुऽभिः॑। शव॑सा। शवां॑सि। वाजः॑। अ॒स्मान्। अ॒व॒तु॒। वाज॑ऽसातौ। इन्द्रे॑ण। यु॒जा। त॒रु॒षे॒म॒। वृ॒त्रम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:48» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य कैसे विद्वान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (वाजः) विज्ञानवान् वा ऐश्वर्य्ययुक्त जन (ऋभुभिः) बुद्धिमान् उत्तम विद्वानों के साथ (वाजसातौ) संग्राम में (ऋभुः) बुद्धिमान् (वः) तुम्हें और (अस्मान्) हमें (अवतु) पाले रक्खे वा (युजा) योग किये हुए (इन्द्रेण) बिजुली आदि शस्त्र से (वृत्रम्) धन को प्राप्त हो, वैसे (विभ्वः) सकल शुभ गुण, कर्म और स्वभावों में व्याप्त हम लोग (विभुभिः) अच्छे गुणादिकों में व्याप्त जन और (शवसा) बल के साथ (शवांसि) बलों को (अभि, तरुषेम) प्राप्त हों जिससे हम लोग सुखी (स्याम) हों ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । वे ही विद्वान् जन विद्याओं में व्याप्त शुभ गुण-कर्म-स्वभाव युक्त हैं, जो संग्राम में भी सब की रक्षा करके धन और बल दे सकते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्याः कथं विद्वांसो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा वाज ऋभुभिस्सह वाजसातावृभुर्वो युष्मानस्माँश्चावतु युजेन्द्रेण वृत्रं प्राप्नुयात् तथा विभ्वो वयं विभुभिः शवसा च सह शवांस्यभि तरुषेम यतो वयं सुखिनः स्याम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋभुः) मेधावी विद्वान् (ऋभुभिः) मेधाविभिराप्तैर्विद्वद्भिस्सह। ऋभुरिति मेधाविनाम। (निघं०३.१५)। (अभि) आभिमुख्ये (वः) युष्मान् (स्याम) (विभ्वः) सकलशुभगुणकर्मस्वभावव्यापिनः (विभुभिः) सद्गुणादिषु व्याप्तैः (शवसा) बलेन (शवांसि) सङ्ग्रामे (इन्द्रेण) विद्युदाद्यस्त्रेण (युजा) युक्तेन (तरुषेम) प्राप्नुयाम। तरुष्यतीति पदनाम। (निघं०४.२) (वृत्रम्) धनम्। वृत्रमिति धननाम। (निघं०२.१०) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव विद्वांसो व्याप्तविद्याशुभगुणस्वभावा भवन्ति ये संग्रामेऽपि सर्वान्रक्षयित्वा धनं बलं च दातु शक्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे युद्धात सर्वांचे रक्षण करून धन व बल देऊ शकतात तेच विद्वान विद्या व शुभ गुण-कर्म-स्वभावाने युक्त असतात. ॥ २ ॥