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या ते॑ दि॒द्युदव॑सृष्टा दि॒वस्परि॑ क्ष्म॒या चर॑ति॒ परि॒ सा वृ॑णक्तु नः। स॒हस्रं॑ ते स्वपिवात भेष॒जा मा न॑स्तो॒केषु॒ तन॑येषु रीरिषः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā te didyud avasṛṣṭā divas pari kṣmayā carati pari sā vṛṇaktu naḥ | sahasraṁ te svapivāta bheṣajā mā nas tokeṣu tanayeṣu rīriṣaḥ ||

पद पाठ

या। ते॒। दि॒द्युत्। अव॑ऽसृष्टा। दि॒वः। परि॑। क्ष्म॒या। चर॑ति। परि॑। सा। वृ॒ण॒क्तु॒। नः॒। स॒हस्र॑म्। ते॒। सु॒ऽअ॒पि॒वा॒त॒। भे॒ष॒जा। मा। नः॒। तो॒केषु॑। तन॑येषु। रि॒रि॒षः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:46» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वपिवात) पवन के समान वर्त्तमान ! (ते) आपकी (या) जो (दिवः) मनोहर कार्य के सम्बन्ध में (परि) सब ओर से (अवसृष्टा) शत्रुओं में प्रेरणा देनेवाली (दिद्युत्) न्यायदीप्ति (क्ष्मया) भूमि के साथ (चरति) जाती है (सा) वह (नः) हम लोगों को अधर्माचरण से (परि, वृणक्तु) सब ओर से अलग रक्खे जिस (ते) आपके (सहस्रम्) असंख्य हजारों (भेषजा) ओषधियाँ हैं, वह आप (तोकेषु) शीघ्र उत्पन्न हुए और (तनयेषु) कुमार अवस्था को प्राप्त हुए बालकों में वर्तमान (नः) हम लोगों को वा हमारे सन्तानों को (मा) मत (रीरिषः) नष्ट करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस राजा का न्यायप्रकाश सर्वत्र प्रदीपता है, वही सबको अधर्माचरण से रोक सकता है, जिसके राज्य में हजारों दूत और चार गुप्तचर मुखवर वैद्यजन विचरते हैं, उसकी थोड़ी भी राज्य की हानि नहीं होती है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे स्वपिवात ! ते तव या दिवः पर्यवसृष्टा दिद्युत् क्ष्मया चरति सा नोऽधर्माचरणात् परि वृणक्तु यस्य ते सहस्रं भेषजा सन्ति स त्वं तोकेषु तनयेषु वर्तमानो नोऽस्मानस्माकमपत्यान्यपि मा सु रीरिषः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) (ते) तव (दिद्युत्) न्यायदीप्तिः (अवसृष्टाः) शत्रुप्रेरिता (दिवः) कमनीयस्य (परि) सर्वतः (क्ष्मया) भूम्या सह। क्ष्मेति पृथिवीनाम। (निघं०१.१)। (चरति) गच्छति (परि) (सा) (वृणक्तु) वर्जयतु (नः) अस्मान् (सहस्रम्) असंख्यम् (ते) तव (स्वपिवात) वायुरिव वर्तमान (भेषजा) ओषधानि (नः) अस्मानस्माकं वा (तोकेषु) सद्यो जातेष्वपत्येषु (तनयेषु) सुकुमारेषु (रीरिषः) हिंस्याः ॥३॥
भावार्थभाषाः - यस्य राज्ञो न्यायप्रकाशः सर्वत्र प्रदीप्यति स एव सर्वानधर्माचरणान्निरोद्धुं शक्नोति यस्य राष्ट्रे सहस्राणि दूताश्चारा वैद्याश्च विचरन्ति तस्य स्वल्पाऽपि राज्यस्य हानिर्न जायेत ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या राजाचा न्यायप्रकाश सर्वत्र दीप्तिमान असतो तोच सर्वांना अधर्माचरणापासून रोखू शकतो. ज्याच्या राज्यात हजारो दूत व गुप्तचर तसेच वैद्य वावरतात त्याच्या राज्याची किंचितही हानी होत नाही. ॥ ३ ॥