इ॒मा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः॑ क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। अषा॑ळ्हाय॒ सह॑मानाय वे॒धसे॑ ति॒ग्मायु॑धाय भरता शृ॒णोतु॑ नः ॥१॥
imā rudrāya sthiradhanvane giraḥ kṣipreṣave devāya svadhāvne | aṣāḻhāya sahamānāya vedhase tigmāyudhāya bharatā śṛṇotu naḥ ||
इ॒माः। रु॒द्राय॑। स्थि॒रऽध॑न्वने। गिरः॑। क्षि॒प्रऽइ॑षवे। दे॒वाय॑। स्व॒धाऽव्ने॑। अषा॑ळ्हाय। सह॑मानाय। वे॒धसे॑। ति॒ग्मऽआ॑यु॑धाय। भ॒र॒त॒। शृ॒णोतु॑। नः॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छयालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में योद्धाजन कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्योद्धारः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
हे विद्वांसो ! यस्मै स्थिरधन्वने क्षिप्रेषवे स्वधाव्नेऽषाळ्हाय सहमानाय तिग्मायुधाय वेधसे रुद्राय देवायेमा गिरो यूयं भरता स नोऽस्माकमिमा गिरः शृणोतु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात रुद्र, राजा व पुरुषांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.