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इ॒मा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः॑ क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। अषा॑ळ्हाय॒ सह॑मानाय वे॒धसे॑ ति॒ग्मायु॑धाय भरता शृ॒णोतु॑ नः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imā rudrāya sthiradhanvane giraḥ kṣipreṣave devāya svadhāvne | aṣāḻhāya sahamānāya vedhase tigmāyudhāya bharatā śṛṇotu naḥ ||

पद पाठ

इ॒माः। रु॒द्राय॑। स्थि॒रऽध॑न्वने। गिरः॑। क्षि॒प्रऽइ॑षवे। दे॒वाय॑। स्व॒धाऽव्ने॑। अषा॑ळ्हाय। सह॑मानाय। वे॒धसे॑। ति॒ग्मऽआ॑यु॑धाय। भ॒र॒त॒। शृ॒णोतु॑। नः॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:46» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छयालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में योद्धाजन कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जिस (स्थिरधन्वने) स्थिर धनुष् वाले (क्षिप्रेषवे) शीघ्र जानेवाले शस्त्र अस्त्रोंवाले (स्वधाव्ने) तथा अपनी ही वस्तु और अपनी धार्मिक क्रिया को धारण करनेवाले (अषाळ्हाय) शत्रुओं से न सहे जाते हुए (सहमानाय) शत्रुओं के सहने को समर्थ (तिग्मायुधाय) तीव्र आयुध शस्त्रयुक्त (वेधसे) मेधावी (रुद्राय) शत्रुओं को रुलानेवाले शूरवीर (देवाय) न्याय की कामना करते हुए विद्वान् के लिये (इमाः) इन (गिरः) वाणियों को (भरत) धारण करो वह (नः) हम लोगों की इन वाणियों को (शृणोतु) सुने ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो दुष्टों के शिक्षा देनेवाले, शस्त्र और अस्त्रवेत्ता, सहनशील, युद्धकुशल विद्वान् हैं, उनको सर्वदैव धनुर्वेद पढ़ाने से और उसके अर्थ से भरी हुई वक्तृता से विद्वान् जन अत्यन्त उत्साह दें और जो सेनापति है, वह प्रजास्थ पुरुषों की वाणी सुने ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्योद्धारः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यस्मै स्थिरधन्वने क्षिप्रेषवे स्वधाव्नेऽषाळ्हाय सहमानाय तिग्मायुधाय वेधसे रुद्राय देवायेमा गिरो यूयं भरता स नोऽस्माकमिमा गिरः शृणोतु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाः) (रुद्राय) शत्रूणां रोदकाय शूरवीराय (स्थिरधन्वने) स्थिरं दृढं धनुर्यस्य तस्मै (गिरः) वाचः (क्षिप्रेषवे) क्षिप्राः शीघ्रगामिन इषवः शस्त्रास्त्राणि यस्य तस्मै (देवाय) विदुषे न्यायं कामयमानाय (स्वधाव्ने) यः स्वं वस्त्वेव दधाति यः स्वां धार्मिकां क्रियां दधाति तस्मै (अषाळ्हाय) शत्रुभिरसहमानाय (सहमानाय) शत्रून् सोढुं समर्थाय (वेधसे) मेधाविने (तिग्मायुधाय) तिग्मानि तीव्राण्यायुधानि यस्य तस्मै (भरता) धरत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (शृणोतु) (नः) अस्माकम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये दुष्टानां शासितारः शस्त्रास्त्रविदः सोढारो युद्धकुशला विद्वांसः सन्ति तान् सदा धनुर्वेदाध्यापनेन तदर्थगर्भितवक्तृत्वेन विद्वांसः प्रोत्साहयन्तु यश्च सेनेशः स प्रजास्थानां वाचः शृणोतु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात रुद्र, राजा व पुरुषांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे दुष्टांचे शासक, शस्त्रास्त्रविद, सहनशील, युद्धकुशल, विद्वान आहेत त्यांना विद्वानांनी सदैव धनुर्वेदाचे अध्यापन व वक्तृत्व याद्वारे अत्यंत उत्साहित करावे. जो सेनापती असतो त्याने प्रजेची वाणी ऐकावी. ॥ १ ॥