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स घा॑ नो दे॒वः स॑वि॒ता स॒हावा सा॑विष॒द्वसु॑पति॒र्वसू॑नि। वि॒श्रय॑माणो अ॒मति॑मुरू॒चीं म॑र्त॒भोज॑न॒मध॑ रासते नः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa ghā no devaḥ savitā sahāvā sāviṣad vasupatir vasūni | viśrayamāṇo amatim urūcīm martabhojanam adha rāsate naḥ ||

पद पाठ

सः। घ॒। नः॒। दे॒वः। स॒वि॒ता। स॒हऽवा॑। आ। सा॒वि॒ष॒त्। वसु॑ऽपतिः। वसू॑नि। वि॒ऽश्रय॑माणः। अ॒मति॑म्। उ॒रू॒चीम्। म॒र्त॒ऽभोज॑नम्। अध॑। रा॒स॒ते॒। नः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:45» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वसुपतिः) धनों की पालना करनेवाला (उरूचीम्) बहुतों वस्तुओं को प्राप्त होता और (अमतिम्) सुन्दररूप को (विश्रयमाणः) विशेष सेवन करता हुआ (नः) हम लोगों को (मर्तभोजनम्) मनुष्यों का हितकारक भोजन व मनुष्यों का पालन (रासते) देता है (स, घा, अध) वही पीछे (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सूर्य के समान प्रकाशमान (सहावा) साथ सेवनेवाला (देवः) मनोहर विद्वान् (नः) हमको (वसूनि) धन (आ, साविषत्) प्राप्त करे ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सूर्य के समान सब के धनों को बढ़ा कर सुपात्रों के लिये देते हैं, वे धनपति होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

यो वसुपतिरुरूचीममतिं विश्रयमाणो नो मर्तभोजनं रासते स घाश्च सविता सहावा देवो नो वसून्या साविषत् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (देवः) कमनीयः (सविता) ऐश्वर्यवान् सूर्यवत्प्रकाशमानः (सहावा) यः सहैव वनति संभजति (आ) समन्तात् (साविषत्) सुवेत् (वसुपतिः) धनपालकः (वसूनि) धनानि (विश्रयमाणः) (अमतिम्) सुन्दरं रूपम्। अमतिरिति रूपनाम। (निघं०३.७)। (उरूचीम्) उरूणि बहूनि वस्तून्यञ्चन्तीम् (मर्तभोजनम्) मर्त्येभ्यो भोजनं मर्तभोजनम् मनुष्याणां पालनं वा (अध) अथ (रासते) ददाति (नः) अस्मभ्यम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सूर्यवत्सर्वेषां धनानि वर्धयित्वा सुपात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति ते धनपतयो भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सूर्याप्रमाणे सर्वांचे धन वाढवून सुपात्रांना देतात ती धनपती बनतात. ॥ ३ ॥