आ दे॒वो या॑तु सवि॒ता सु॒रत्नो॑ऽन्तरिक्ष॒प्रा वह॑मानो॒ अश्वैः॑। हस्ते॒ दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑ निवे॒शय॑ञ्च प्रसु॒वञ्च॒ भूम॑ ॥१॥
ā devo yātu savitā suratno ntarikṣaprā vahamāno aśvaiḥ | haste dadhāno naryā purūṇi niveśayañ ca prasuvañ ca bhūma ||
आ। दे॒वः। या॒तु॒। स॒वि॒ता। सु॒ऽरत्नः॑। अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राः। वह॑मानः। अश्वैः॑। हस्ते॑। दधा॑नः। नर्या॑। पु॒रूणि॑। नि॒ऽवे॒शय॑न्। च॒। प्र॒ऽसु॒वन्। च॒। भूम॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्विद्वांसः किंवत् किं कुर्युरित्याह ॥
हे मनुष्याः ! सुरत्नस्सविता देवोऽन्तरिक्षप्रा अश्वैर्भूगोलान् वहमानः पुरूणि नर्या दधानो निवेशयन् प्रसुवं याति तथा सर्वमेतत्प्रापयंश्चैश्वर्यं हस्ते दधानो विद्वानायातु तेन सह वयञ्चेदृशा भूम ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात सविताप्रमाणे विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.