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आ नो॑ दधि॒क्राः प॒थ्या॑मनक्त्वृ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑। शृ॒णोतु॑ नो॒ दैव्यं॒ शर्धो॑ अ॒ग्निः शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ महि॒षा अमू॑राः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no dadhikrāḥ pathyām anaktv ṛtasya panthām anvetavā u | śṛṇotu no daivyaṁ śardho agniḥ śṛṇvantu viśve mahiṣā amūrāḥ ||

पद पाठ

आ। नः॒। द॒धि॒ऽक्राः। प॒थ्या॑म्। अ॒न॒क्तु॒। ऋ॒तस्य॑। पन्था॑म्। अनु॑ऽए॒त॒वै। ऊँ॒ इति॑। शृ॒णोतु॑। नः॒। दैव्य॑म्। शर्धः॑। अ॒ग्निः। शृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। म॒हि॒षाः। अमू॑राः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:44» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! आप (दधिक्राः) घोड़े के समान धारण करनेवालों को चलानेवाले (पथ्याम्) मार्ग में सिद्धि करने वाली गति के समान (नः) हम लोगों के (ऋतस्य) सत्य वा जल (पन्थाम्) मार्ग के (अन्वेतवै) पीछे जाने को (आ, अनक्तु) कामना करें (उ) और (अग्निः) बिजुली के समान शीघ्र जावें और (नः) हमारे (दैव्यम्) विद्वानों ने उत्पन्न किये (शर्धः) शरीर और आत्मा के बल को (शृणोतु) सुनें (महिषाः) महान् (विश्वे) सब (अमूराः) अमूढ़ अर्थात् विज्ञानवान् जन हमारे विद्वानों ने =के सिद्ध किये हुए वचन को (शृण्वन्तु) सुनें ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे परीक्षक न्यायाधीश वा राजा सब के वचनों को सुन के सत्य और असत्य का निश्चय करता और अग्नि आदि का प्रयोग कर शीघ्र मार्ग को जाता है, वैसे ही तुम लोग विद्वानों से सुन कर धर्मयुक्त मार्ग से अपना व्यवहार कर मूढ़ता छोड़ो और छुड़ाओ ॥५॥ इस सूक्त में अग्निरूपी घोड़ों के गुण और कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चवालीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वान् ! भवान् दधिक्राः पथ्यामिव नोऽस्मानृतस्य पन्थामन्वेतवा आ अनक्तू अग्निरिव सद्यो गच्छतु नो दैव्यं शर्धः शृणोतु महिषा विश्वेऽमूराः विद्वांसो नो दैव्यं वचः शृण्वन्तु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (नः) (दधिक्राः) अश्व इव धारकान् क्रामयिता गमयिता (पथ्याम्) पथि साध्वीं गतिम् (अनक्तु) कामयताम् (ऋतस्य) सत्यस्योदकस्य वा (पन्थाम्) पन्थानम् (अन्वेतवै) अन्वेतुमनुगन्तुम् (उ) (शृणोतु) (नः) अस्माकम् (दैव्यम्) देवैर्विद्वद्भिर्निष्पादितम् (शर्धः) शरीरात्मबलम् (अग्निः) विद्युदिव (शृण्वन्तु) (विश्वे) सर्वे (महिषाः) महान्तः (अमूराः) अमूढा विद्वांसः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा परीक्षको न्यायेशो राजा वा सर्वेषां वचांसि श्रुत्वा सत्याऽसत्ये निश्चिनोति अग्न्यादिप्रयोगेण पन्थानं सद्यो गच्छन्ति तथैव यूयं विद्वद्भ्यः श्रुत्वा धर्म्येण मार्गेण व्यवहृत्य मौढ्यं त्यजत त्याजयत ॥५॥ अत्राग्न्यश्वादिगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुश्चत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा परीक्षक, न्यायाधीश, राजा सर्वांचे वचन ऐकून सत्य व असत्याचा निश्चय करतो व अग्नी इत्यादीचा प्रयोग करून मार्गाने शीघ्रतेने जातो तसेच तुम्ही लोक विद्वानांना ऐकून धर्मयुक्त मार्गाने आपला व्यवहार करून मूढता कमी करा व करवा. ॥ ५ ॥