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द॒धि॒क्रामु॒ नम॑सा बो॒धय॑न्त उ॒दीरा॑णा य॒ज्ञमु॑पप्र॒यन्तः॑। इळां॑ दे॒वीं ब॒र्हिषि॑ सा॒दय॑न्तो॒ऽश्विना॒ विप्रा॑ सु॒हवा॑ हुवेम ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dadhikrām u namasā bodhayanta udīrāṇā yajñam upaprayantaḥ | iḻāṁ devīm barhiṣi sādayanto śvinā viprā suhavā huvema ||

पद पाठ

द॒धि॒ऽक्राम्। ऊँ॒ इति॑। नम॑सा। बो॒धय॑न्तः। उ॒त्ऽईरा॑णाः। य॒ज्ञम्। उ॒प॒ऽप्र॒यन्तः॑। इळा॑म्। दे॒वीम्। ब॒र्हिषि॑। सा॒दय॑न्तः। अ॒श्विना॑। विप्राः॑। सु॒ऽहवा॑। हु॒वे॒म॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:44» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषयको अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (नमसा) अन्नादि से वा सत्कार से (दधिक्राम्) पृथिवी आदि के धारण करनेवालों को (बोधयन्तः) बोध दिलाते हुए (उदीराणाः) उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त (यज्ञम्) यज्ञ का (उपप्रयन्तः) प्रयत्न करते (उ) और (देवीम्) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाली (इळाम्) प्रशंसनीय वाणी को (बर्हिषि) वृद्धि करनेवाले व्यवहार में (सादयन्तः) स्थिर कराते हुए हम लोग (सुहवा) शुभ बुलाने जिनके उन (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करनेवाले (विप्रा) बुद्धिमान् पण्डितों की (हुवेम) प्रशंसा करें, वैसे उनकी तुम भी प्रशंसा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । वे ही विद्वान् जन जगत् के हितैषी होते हैं, जो सब जगह विद्या फैलाते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा नमसा दधिक्रां बोधयन्त उदीराणा यज्ञमुप प्रयन्त उ देवीमिळां बर्हिषि सादयन्तो वयं सुहवाऽश्विना विप्रा हुवेम तथैतौ यूयमप्याह्वयत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दधिक्राम्) पृथिव्यादिधारकाणां क्रमितारम् (उ) (नमसा) अन्नाद्येन सत्कारेण वा (बोधयन्तः) (उदीराणाः) उत्कृष्टं ज्ञानं प्राप्ताः (यज्ञम्) सङ्गतिकरणाख्यम् (यज्ञम्) (उपप्रयन्तः) प्रयत्नेनोपायं कुर्वन्तः (इळाम्) प्रशंसनीयां वाचम् (देवीम्) दिव्यगुणकर्मस्वभावाम् (बर्हिषि) वृद्धिकरे व्यवहारे (सादयन्तः) (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (विप्रा) मेधाविनौ विपश्चितौ (सुहवा) शोभनानि हवान्याह्वानानि ययोस्तौ (हुवेम) प्रशंसेम ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव विद्वांसो जगद्धितैषिणस्सन्ति ये सर्वत्र विद्याः प्रसारयन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सर्वत्र विद्येचा प्रचार करतात तेच विद्वान जगाचे हितकर्ते असतात. ॥ २ ॥