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ते सी॑षपन्त॒ जोष॒मा यज॑त्रा ऋ॒तस्य॒ धाराः॑ सु॒दुघा॒ दुहा॑नाः। ज्येष्ठं॑ वो अ॒द्य मह॒ आ वसू॑ना॒मा ग॑न्तन॒ सम॑नसो॒ यति॒ ष्ठ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te sīṣapanta joṣam ā yajatrā ṛtasya dhārāḥ sudughā duhānāḥ | jyeṣṭhaṁ vo adya maha ā vasūnām ā gantana samanaso yati ṣṭha ||

पद पाठ

ते। सी॒ष॒प॒न्त॒। जोष॑म्। आ। यज॑त्राः। ऋ॒तस्य॑। धाराः॑। सु॒ऽदुघाः॑। दुहा॑नाः। ज्येष्ठ॑म्। वः॒। अ॒द्य। महः॑। आ। वसू॑नाम्। आ। ग॒न्त॒न॒। सऽम॑नसः। यति॑। स्थ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:43» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (यजत्राः) सङ्ग करनेवाले (जोषम्) पूरी (आ, सीषपन्त) शौ =शपथों को करें (ते) वे (समनसः) एकसे विज्ञानवाले जन (ऋतस्य) सत्य की (सुदुघाः) कामनाओं की पूरी करनेवाली (दुहानाः) पूर्ण शिक्षा विद्यायुक्त (धाराः) वाणियों को (आ, गन्तन) प्राप्त हों और (यति) जिनमें यत्न करते हैं उस व्यवहार में (आ, स्थ) स्थिर हों, हे धार्मिक सज्जनो ! (वः) तुम लोगों को (वसूनाम्) धनों का (महः) महान् (ज्येष्ठम्) प्रशंसित भाग (अद्य) आज प्राप्त हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो सत्य कहने, सत्य करने और सत्य माननेवाले होते हैं, वे पूर्णकाम होकर सब मनुष्यों को विद्वान् कर सकते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

ये यजत्रा जोषमासीषपन्त ते समनस ऋतस्य सुदुघा दुहाना धारा आ गन्तन यत्यास्थ हे धार्मिका ! वो युष्मान् वसूनां महो ज्येष्ठमद्य प्राप्नोतु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) (सीषपन्त) शपथान् कुरुत (जोषम्) पूर्णम् (आ) (यजत्रा) सङ्गन्तारः (ऋतस्य) सत्यस्य (धाराः) वाचः (सुदुघाः) कामानां पूरयित्रीः (दुहानाः) पूर्णशिक्षाविद्याः (ज्येष्ठम्) (वः) युष्मान् (अद्य) (महः) महत् (आ) (वसूनाम्) धनानाम् (आ) (गन्तन) प्राप्नुत (समनसः) समानविज्ञानाः (यति) प्रयतन्ते यस्मिन् तस्मिन् (स्थ) भवत ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये सत्यवादिनः सत्यकर्तारः सत्यमन्तारो भवन्ति ते पूर्णकामा भूत्वा सर्वान् मनुष्यान् विदुषः कर्तुं शक्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ ः जे सत्यवचनी, सत्यकर्ता, सत्यमानी असतात, ते पूर्ण काम बनून सर्व माणसांना विद्वान करू शकतात. ॥ ४ ॥