वांछित मन्त्र चुनें

प्र वो॑ य॒ज्ञेषु॑ देव॒यन्तो॑ अर्च॒न्द्यावा॒ नमो॑भिः पृथि॒वी इ॒षध्यै॑। येषां॒ ब्रह्मा॒ण्यस॑मानि॒ विप्रा॒ विष्व॑ग्वि॒यन्ति॑ व॒निनो॒ न शाखाः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo yajñeṣu devayanto arcan dyāvā namobhiḥ pṛthivī iṣadhyai | yeṣām brahmāṇy asamāni viprā viṣvag viyanti vanino na śākhāḥ ||

पद पाठ

प्र। वः॒। य॒ज्ञेषु॑। दे॒व॒ऽयन्तः॑। अ॒र्च॒न्। द्यावा॑। नमः॑ऽभिः। पृ॒थि॒वी इति॑। इ॒षध्यै॑। येषा॑म्। ब्रह्मा॑णि। अस॑मानि। विप्राः॑। विष्व॑क्। वि॒ऽयन्ति॑। व॒निनः॑। न। शाखाः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:43» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले तेतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर अतिथि और गृहस्थ एक दूसरे के लिये क्या-क्या देवें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विप्राः) बुद्धिमानो ! (येषाम्) जिनको (असमानि) औरों के धनों से न समान किन्तु अधिक (ब्रह्माणि) धन वा अन्न (वनिनः) वन सम्बन्ध रखने और (शाखाः) अन्तरिक्ष में सोनेवाली शाखाओं के (न) समान (विष्वक्) अनुकूल व्याप्ति जैसे हो, वैसे (वि, यन्ति) व्याप्त होते हैं वा जो (नमोभिः) अन्नादिकों से (इषध्यै) इच्छा करने वा जानने को (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि की (यज्ञेषु) विद्याप्रचारादि व्यवहारों में (देवयन्तः) कामना करते हुए (वः) तुम लोगों का (प्रार्चन्) अच्छा सत्कार करते हैं, उनका तुम भी सत्कार करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे अतिथि विद्वानो ! जैसे गृहस्थ जन अन्नादि पदार्थों के साथ आपका सत्कार करें, वैसे तुम विज्ञानदान से गृहस्थों को निरन्तर प्रसन्न करो ॥१॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरतिथिगृहस्थाः परस्परस्मै किं किं प्रदद्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विप्राः ! येषामसमानि ब्रह्माणि वनिनः शाखा न विष्वग्वि यन्ति ये नमोभिरिषध्यै द्यावापृथिवी यज्ञेषु देवयन्तो वो युष्मान् प्रार्चंस्तान् भवन्तोऽपि सत्कुर्वन्तु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्मान् (यज्ञेषु) विद्याप्रचारादिव्यवहारेषु (देवयन्तः) कामयमानाः (अर्चन्) अर्चन्ति सत्कुर्वन्ति (द्यावा) सूर्यम् (नमोभिः) अन्नादिभिः (पृथिवी) भूमिम् (इषध्यै) एष्टुं ज्ञातुम् (येषाम्) (ब्रह्माणि) धनान्यन्नानि वा (असमानि) अन्येषां धनैरतुल्यान्यधिकानीति यावत् (विप्राः) मेधाविनः (विष्वक्) विषु व्याप्तं अञ्चतीति (वि, यन्ति) व्याप्नुवन्ति (वनिनः) वनसम्बन्धो विद्यते येषां ते (न) इव (शाखाः) याः खेऽन्तरिक्षे शेरते ताः ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे अतिथयो विद्वांसो ! यथा गृहस्था अन्नादिभिर्युष्मान् सत्कुर्युस्तथा यूयं विज्ञानदानेन गृहस्थान् सततं प्रीणन्तु ॥१॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विश्वदेवाचे गुण व काम यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे विद्वान अतिथींनो! जसे गृहस्थ अन्न इत्यादींनी तुमचा सत्कार करतात तसे तुम्ही विज्ञान शिकवून गृहस्थांना निरंतर प्रसन्न करा. ॥ १ ॥