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समु॑ वो य॒ज्ञं म॑हय॒न्नमो॑भिः॒ प्र होता॑ म॒न्द्रो रि॑रिच उपा॒के। यज॑स्व॒ सु पु॑र्वणीक दे॒वाना य॒ज्ञिया॑म॒रम॑तिं ववृत्याः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam u vo yajñam mahayan namobhiḥ pra hotā mandro ririca upāke | yajasva su purvaṇīka devān ā yajñiyām aramatiṁ vavṛtyāḥ ||

पद पाठ

सम्। ऊँ॒ इति॑। वः॒। य॒ज्ञम्। म॒ह॒य॒न्। नमः॑ऽभिः। प्र। होता॑। म॒न्द्रः। रि॒रि॒चे॒। उ॒पा॒के। यज॑स्व। सु। पु॒रु॒ऽअ॒नी॒क॒। दे॒वान्। आ। य॒ज्ञिया॑म्। अ॒रऽम॑तिम्। व॒वृ॒त्याः॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:42» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुर्वणीक) बहुत सेनाओंवाले राजा ! आप (देवान्) विद्वानों को (सु, यजस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ (यज्ञियाम्) जो यज्ञ के योग्य होती उस (अरमतिम्) पूरी मति को (आ, ववृत्याः) प्रवृत्त कराओ (मन्द्रः) आनन्द देने वा (होता) दान करनेवाले होते हुए (उपाके) समीप में (प्र, रिरिचे) अन्याय से अलग रहिये, हे विद्वानो ! जो (नमोभिः) अन्नादिकों से (वः) तुम लोगों के (यज्ञम्) विद्याप्रचारमय यज्ञ का (सम्, महयन्) सम्मान करते हैं (उ) उन्हीं का तुम सत्कार करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् जन सत्कर्मानुष्ठानयज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वे पुष्कल वीर सेनावाले होते हुए सबको आनन्द देनेवाले होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे पुर्वणीक राजन् ! त्वं देवान् सुयजस्व यज्ञियामरमतिमा ववृत्या मन्द्रो होता सन्नुपाके प्र रिरिचे, हे विद्वांसो ! ये नमोभिर्वो यज्ञं सम्महयन् तानु यूयं सत्कुरुत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) (उ) (वः) युष्माकम् (यज्ञम्) विद्याप्रचारमयम् (महयन्) सत्कुर्वन्ति (नमोभिः) अन्नादिभिः (प्र) (होता) दाता (मन्द्रः) आनन्दप्रदः (रिरिचे) अन्यायात् पृथग्भव (उपाके) समीपे (यजस्व) सङ्गच्छस्व (सु) (पुर्वणीक) पुरूण्यनीकानि सैन्यानि यस्य तत्सम्बुद्धौ (देवान्) विदुषः (आ) (यज्ञियाम्) या यज्ञमर्हति ताम् (अरमतिम्) पूर्णां प्रज्ञाम् (ववृत्याः) प्रवर्त्तय ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वांसः सत्कर्मानुष्ठानाख्यं यज्ञमनुतिष्ठन्ति ते पुष्कलवीरसेनास्सन्तः सर्वेषामानन्दप्रदा भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विद्वान सत्कर्मानुष्ठान यज्ञ करतात त्यांना प्रचंड वीरसेना प्राप्त होते व ते सर्वांना आनंद देतात. ॥ ३ ॥