प्र ब्र॒ह्माणो॒ अङ्गि॑रसो नक्षन्त॒ प्र क्र॑न्द॒नुर्न॑भ॒न्य॑स्य वेतु। प्र धे॒नव॑ उद॒प्रुतो॑ नवन्त यु॒ज्याता॒मद्री॑ अध्व॒रस्य॒ पेशः॑ ॥१॥
pra brahmāṇo aṅgiraso nakṣanta pra krandanur nabhanyasya vetu | pra dhenava udapruto navanta yujyātām adrī adhvarasya peśaḥ ||
प्र। ब्र॒ह्माणः॑। अङ्गि॑रसः। न॒क्ष॒न्त॒। प्र। क्र॒न्द॒नुः। न॒भ॒न्य॑स्य। वे॒तु॒। प्र। धे॒नवः॑। उ॒द॒ऽप्रुतः॑। न॒व॒न्त॒। यु॒ज्याता॑म्। अद्री॒ इति॑। अ॒ध्व॒रस्य॑। पेशः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले बयालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में पूरी विद्यावाले जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ पूर्णविद्या जनाः किं कुर्युरित्याह ॥
हे ब्रह्माणोऽङ्गिरसो विद्वांसो यथा क्रन्दनुर्नभन्यस्याध्वरस्य पेशः प्र वेत्वुदप्रुत इव धेनवोऽध्वरस्य पेशो नवन्त यथाऽद्री अध्वरस्य पेशो प्र युज्यातां तथा विद्यासु भवन्तः प्र नक्षन्त ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विश्वेदेवांच्या गुण, कर्मांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.