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अ॒स्य दे॒वस्य॑ मी॒ळ्हुषो॑ व॒या विष्णो॑रे॒षस्य॑ प्रभृ॒थे ह॒विर्भिः॑। वि॒दे हि रु॒द्रो रु॒द्रियं॑ महि॒त्वं या॑सि॒ष्टं व॒र्तिर॑श्विना॒विरा॑वत् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya devasya mīḻhuṣo vayā viṣṇor eṣasya prabhṛthe havirbhiḥ | vide hi rudro rudriyam mahitvaṁ yāsiṣṭaṁ vartir aśvināv irāvat ||

पद पाठ

अ॒स्य। दे॒वस्य॑। मी॒ळ्हुषः॑। व॒याः। विष्णोः॑। ए॒षस्य॑। प्र॒ऽभृ॒थे। ह॒विःऽभिः॑। वि॒दे। हि। रु॒द्रः। रु॒द्रिय॑म्। म॒हि॒ऽत्वम्। या॒सि॒ष्टम्। व॒र्तिः। अ॒श्वि॒नौ॒। इरा॑ऽवत् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:40» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (अस्य) इस (मीळ्हुषः) जल के समान सुख सींचनेवाला (विष्णोः) बिजुली के समान व्यापक ईश्वर (एषस्य) जो कि सर्वत्र प्राप्त होने (देवस्य) और निरन्तर प्रकाशमान सकल सुख देनेवाला उसके (हविर्भिः) होमने योग्य पदार्थों के समान ग्रहण किये शान्त चितादिकों से (प्रभृथे) उत्तमता से धारण किये हुए जगत् में (इरावत्) अन्नादि ऐश्वर्य्य युक्त (वर्तिः) मार्ग को और (महित्वम्) महत्व को (यासिष्टम्) प्राप्त होते हैं, उस ईश्वर की (रुद्रियम्) प्राणसम्बन्धी महिमा को (वयाः) प्राप्त करने (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाला मैं (हि) ही (विदे) प्राप्त होता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर की महिमा को पाकर सूर्य आदि प्रकाश करते हैं, उसी को उपासना सर्वस्व से करनी चाहिये ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

यथाश्विना अस्य मीळ्हुषो विष्णोरेषस्य देवस्य हविर्भिः प्रभृथे जगतीरावद्वर्तिर्महित्वं यासिष्टं तस्य रुद्रियं वया रुद्रोऽहं हि विदे ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) (देवस्य) देदीप्यमानस्य सकलसुखदातुः (मीळ्हुषः) जलेनेव सुखसेचकस्य (वयाः) प्रापकः (विष्णोः) विद्युदिव व्यापकस्येश्वरस्य (एषस्य) सर्वत्र प्राप्तव्यस्य (प्रभृथे) प्रकर्षेण धारिते जगति (हविर्भिः) होतव्यैः पदार्थैरिवादत्तैः शान्तैश्चित्तादिभिः (विदे) प्राप्नोमि (हि) (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता (रुद्रियम्) प्राणसम्बन्धि (महित्वम्) महत्त्वम् (यासिष्टम्) प्राप्नुतः (वर्तिः) मार्गम् (अश्विनौ) सूर्याचन्द्रमसौ (इरावत्) अन्नाद्यैश्वर्ययुक्तम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यस्येश्वरस्य महिमानं प्राप्य सूर्यादयो लोकाः प्रकाशयन्ति तस्यैवोपासनं सर्वस्वेन कर्तव्यम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या ईश्वराची महिमा प्राप्त करून सूर्य इत्यादी गोल प्रकाशित होतात त्याचीच सर्वस्वाने उपासना केली पाहिजे. ॥ ५ ॥