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अ॒यं हि ने॒ता वरु॑ण ऋ॒तस्य॑ मि॒त्रो राजा॑नो अर्य॒मापो॒ धुः। सु॒हवा॑ दे॒व्यदि॑तिरन॒र्वा ते नो॒ अंहो॒ अति॑ पर्ष॒न्नरि॑ष्टान् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ hi netā varuṇa ṛtasya mitro rājāno aryamāpo dhuḥ | suhavā devy aditir anarvā te no aṁho ati parṣann ariṣṭān ||

पद पाठ

अ॒यम्। हि। ने॒ता। वरु॑णः। ऋ॒तस्य॑। मि॒त्रः। राजा॑नः। अ॒र्य॒मा। अपः॑। धुरिति॒ धुः। सु॒ऽहवा॑। दे॒वी। अदि॑तिः। अ॒न॒र्वा। ते। नः॒। अंहः॑। अति॑। प॒र्ष॒न्। अरि॑ष्टान् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:40» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन राजा होने योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अयम्) यह (नेता) न्यायकर्त्ता (वरुणः) श्रेष्ठ (मित्रः) मित्र (अर्यमा) और न्यायाधीश (सुहवा) सुन्दर देने लेनेवाले (राजानः) राजजन (हि) ही (ऋतस्य) सत्य के (अपः) कर्म को (धुः) धारण करें (ते) वे (अनर्वा) नहीं है घोड़े की चाल जिस की उस (देवी) देदीप्यमान (अदितिः) अखण्डित नीति के समान (नः) हम लोगों को (अंहः) अपराध से (अरिष्टान्) न विनाश किये हुए (अति, पर्षन्) उल्लङ्घे अर्थात् छोड़े ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही राजा होते हैं, जो न्याय, श्रेष्ठ गुण और सबों में मित्रता की भावना कराते हैं, वे ही अपराध के आचरण से लोगों को दूर रखने योग्य होते हैं और राजा होने योग्य होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

के राजानो भवितुमर्हन्तीत्याह ॥

अन्वय:

येऽयं नेता वरुणो मित्रोऽर्यमा च सुहवा राजानो ह्यृतस्यापो धुस्तेऽनर्वा देव्यदितिरिव नोऽरिष्टानंहोऽति पर्षन् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (हि) (नेता) नयनकर्ता (वरुणः) श्रेष्ठः (ऋतस्य) सत्यस्य (मित्रः) सखा (राजानः) (अर्यमा) न्यायेशः (अपः) सुकर्म (धुः) दध्युः (सुहवा) सुष्ठुदानादानाः (देवी) देदीप्यमाना (अदितिः) अखण्डिता (अनर्वा) अविद्यमानाश्वगमनेव (ते) (नः) अस्मान् (अंहः) अपराधात् (अति) (पर्षन्) उल्लङ्घयेयुः (अरिष्टान्) अहिंसितान् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव राजानो भवन्ति ये न्यायं शुभान् गुणान् सर्वेषु मैत्रीं च भावयन्ति त एवापराधाचरणाज्जनान् पृथग्रक्षितुमर्हन्ति त एव राजानो भवितुमर्हन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्यांचे गुण श्रेष्ठ असतात व सर्वांशी मैत्रीने वागतात तेच राजे होतात व अपराधापासून लोकांना दूर ठेवण्याची ज्यांच्यात क्षमता असते, ते राजे होण्यायोग्य असतात. ॥ ४ ॥