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ओ श्रु॒ष्टिर्वि॑द॒थ्या॒३॒॑ समे॑तु॒ प्रति॒ स्तोमं॑ दधीमहि तु॒राणा॑म्। यद॒द्य दे॒वः स॑वि॒ता सु॒वाति॒ स्यामा॑स्य र॒त्निनो॑ विभा॒गे ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

o śruṣṭir vidathyā sam etu prati stomaṁ dadhīmahi turāṇām | yad adya devaḥ savitā suvāti syāmāsya ratnino vibhāge ||

पद पाठ

ओ इति॑। श्रु॒ष्टिः। वि॒द॒थ्या॑। सम्। ए॒तु॒। प्रति॑। स्तोम॑म्। द॒धी॒म॒हि॒। तु॒राणा॑म्। यत्। अ॒द्य। दे॒वः। स॒वि॒ता। सु॒वाति॑। स्याम॑। अ॒स्य॒। र॒त्निनः॑। वि॒ऽभा॒गे ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:40» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले चालीसवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) ओ विद्वान् ! जैसे (श्रुष्टिः) शीघ्र करनेवाला (विदथ्या) संग्रामादि व्यवहारों में हुई (तुराणाम्) शीघ्रकारियों के (प्रति, स्तोमम्) समूह-समूह के प्रति (सम्, एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, वैसे इस समूह को हम लोग (दधीमहि) धारण करें (यत्) जो (अद्य) अब (देवः) विद्वान् (सविता) अच्छे कामों में प्रेरणा देनेवाला (विभागे) विशेष कर सेवने योग्य व्यवहार में (अस्य) इस विद्वान् के (रत्निनः) उन व्यवहारों को जिन में बहुत रत्न विद्यमान और स्तुति समूह को (सुवाति) उत्पन्न करता है, वैसे हम लोग उत्पन्न करनेवाले (स्याम) हों ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विदुषी माता सन्तानों की रक्षा कर और अच्छी शिक्षा देकर बढ़ाती है, वैसे विद्वान् जन हम को बढ़ावें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

ओ विद्वन् ! यथा श्रुष्टिर्विदथ्या तुराणां प्रतिस्तोमं समेतु तथैतं स्तोमं वयं दधीमहि यदद्य देवस्सविता विभागेऽस्य रत्निनः स्तोमं सुवाति तथा वयं स्याम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ओ) सम्बोधने (श्रुष्टिः) आशुकारी (विदथ्या) विदथेषु संग्रामादिषु व्यवहारेषु भवा (सम्) (एतु) सम्यक् प्राप्नोतु (प्रति) (स्तोमम्) (दधीमहि) (तुराणाम्) सद्यः कारिणाम् (यत्) यः (अद्य) इदानीम् (देवः) विद्वान् (सविता) सत्कर्मसु प्रेरकः (सुवाति) जनयति (स्याम) भवेम (अस्य) विदुषः (रत्निनः) बहूनि रत्नानि धनानि विद्यन्ते येषु तान् (विभागे) विशेषेण भजनीये व्यवहारे ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विदुषी माताऽपत्यानि संरक्ष्य सुशिक्ष्य वर्द्धयति तथा विद्वांसोऽस्मान् वर्द्धयन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विश्वेदेवांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी विदुषी माता अपत्याचे संरक्षण करून सुशिक्षित करते तसे विद्वानांनी आम्हाला वाढवावे. ॥ १ ॥