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आ यो योनिं॑ दे॒वकृ॑तं स॒साद॒ क्रत्वा॒ ह्य१॒॑ग्निर॒मृताँ॒ अता॑रीत्। तमोष॑धीश्च व॒निन॑श्च॒ गर्भं॒ भूमि॑श्च वि॒श्वधा॑यसं बिभर्ति ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yo yoniṁ devakṛtaṁ sasāda kratvā hy agnir amṛtām̐ atārīt | tam oṣadhīś ca vaninaś ca garbham bhūmiś ca viśvadhāyasam bibharti ||

पद पाठ

आ। यः। योनि॑म्। दे॒वऽकृ॑तम्। स॒साद॑। क्रत्वा॑। हि। अ॒ग्निः। अ॒मृता॑न्। अता॑रीत्। तम्। ओष॑धीः। च॒। व॒निनः॑। च॒। गर्भ॑म्। भूमिः॑। च॒। वि॒श्वऽधा॑यसम्। बि॒भ॒र्ति॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:4» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन विद्वान् किसके तुल्य करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (देवकृतम्) विद्वानों ने विद्या पढ़ने के अर्थ बनाये (योनिम्) घर में (आ, ससाद) अच्छे प्रकार निवास करे वह (हि) ही (क्रत्वा) बुद्धि से (अमृतान्) नाशरहित जीवों वा पदार्थों को (अतारीत्) तारता है (च) और जो (भूमिः) पृथिवी के तुल्य सहनशील पुरुष (तम्) उस (विश्वधायसम्) समस्त विद्याओं के धारण करनेवाले (गर्भम्) उपदेशक (च) और (ओषधिः) सोमादि ओषधियों (च) और (वनिनः) बहुत किरणोंवाले अग्नियों को (च) भी (बिभर्ति) धारण करता है, वही अतिपूज्य होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि समिधा और होमने योग्य पदार्थों से बढ़ता है, वैसे ही जो पाठशाला में जा आचार्य को प्रसन्न कर ब्रह्मचर्य से विद्या का अभ्यास करते हैं, वे ओषधियों के तुल्य अविद्यारूप रोग के निवारक, सूर्य के तुल्य धर्म के प्रकाशक और पृथिवी के समान सब के धारण वा पोषणकर्त्ता होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

को विद्वान् किंवत्करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽग्निरिव देवकृतं योनिमा ससाद स हि क्रत्वाऽमृतानतारीद्यश्च भूमिरिव तं विश्वधायसं गर्भमोषधीश्च वनिनश्च बिभर्ति स एव पूज्यतमो भवति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (यः) (योनिम्) गृहम् देवकृतम् विद्वद्भिर्विद्याध्ययनाय निर्मितम् (ससाद) निवसेत् (क्रत्वा) प्रज्ञया (हि) यतः (अग्निः) पावक इव (अमृतान्) नाशरहिताञ्जीवान् पदार्थान् वा (अतारीत्) तारयति (तम्) (ओषधीः) सोमाद्याः (च) (वनिनः) वनानि बहवो किरणा विद्यन्ते येषु तान् (च) (गर्भम्) (भूमिः) पृथिवी च (विश्वधायसम्) यो विश्वाः समग्रा विद्या दधाति ताम् (बिभर्ति) ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाऽग्निः समिद्भिर्हविर्भिश्च वर्धते तथैव ये विद्यालयं गत्वाऽऽचार्य्यं प्रसाद्य ब्रह्मचर्येण विद्यामभ्यस्यन्ति त ओषधीवदविद्यारोगनिवारकाः सूर्यवद्धर्मप्रकाशका भूमिवद्विश्वम्भरा भवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा होमात समिधा व हवी घालण्यामुळे अग्नी प्रदीप्त होतो तसेच जे पाठशाळेमध्ये आचार्यांना प्रसन्न करून ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्येचा अभ्यास करतात ते औषधीप्रमाणे अविद्यारूपी रोगनिवारक, सूर्याप्रमाणे धर्माचे प्रकाशक व पृथ्वीप्रमाणे सर्वांचे धारणकर्ते, पोषणकर्ते ठरतात. ॥ ५ ॥