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ए॒ता नो॑ अग्ने॒ सौभ॑गा दिदी॒ह्यपि॒ क्रतुं॑ सु॒चेत॑सं वतेम। विश्वा॑ स्तो॒तृभ्यो॑ गृण॒ते च॑ सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā no agne saubhagā didīhy api kratuṁ sucetasaṁ vatema | viśvā stotṛbhyo gṛṇate ca santu yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

ए॒ता। नः॒। अ॒ग्ने॒। सौभ॑गा। दि॒दी॒हि॒। अपि॑। क्रतु॑म्। सु॒ऽचेत॑सम्। व॒ते॒म॒। विश्वा॑। स्तो॒तृऽभ्यः॑। गृ॒ण॒ते। च॒। स॒न्तु॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:4» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि राजन् ! आप (एता) इन (सौभगा) उत्तम ऐश्वर्य्यवाले पदार्थों को (नः) हमारे लिये (दिदीहि) प्रकाशित कीजिये (अपि) और तो (सुचेतसम्) सुन्दर ज्ञानयुक्त (क्रतुम्) बुद्धि को प्रकाशित कीजिये (स्तोतृभ्यः) ऋत्विजों के लिये (च) तथा (गृणते) यजमान के लिये उत्तम ऐश्वर्य्यवाले (सन्तु) हों जिससे (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) स्वस्थता करनेवाली क्रियाओं से (नः) हमारी (सदा) सदा (पात) रक्षा करो इसलिये हम लोग पूर्वोक्त बुद्धि और (विश्वा) धनों का (वतेम) सेवन करें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यदि आप सब मनुष्यों को ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्यादान दिलावें, ऋत्विजों और यजमानों को सर्वदा रक्षा करें तो स्वस्थता से पूर्ण राज्य के ऐश्वर्य्य को प्राप्त हों ॥१०॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, राजा, वीर और प्रजा की रक्षा आदि कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह चौथा सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्युच्यते।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वमेता सौभगा न दिदीह्यपि तु सुचेतसं क्रतुं दिदीहि स्तोतृभ्यो गृणते च सौभगा सन्तु यतो यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात तस्माद्वयं पूर्वोक्तां प्रज्ञां विश्वा धनानि च वतेम ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एता) एतानि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) पावक इव विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (सौभगा) सुभगस्योत्तमैश्वर्यस्य भावो येषु तानि (दिदीहि) सर्वतः प्रकाशय (अपि) (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (सुचेतसम्) सुष्ठु विज्ञानयुक्ताम् (वतेम) सम्भजेम (विश्वा) सर्वाणि (स्तोतृभ्यः) ऋत्विग्भ्यः (गृणते) यजमानाय (च) (सन्तु) (यूयम्) राजभृत्याः (पात) (स्वस्तिभिः) स्वास्थ्यकरणाभिः क्रियाभिः (सदा) (नः) अस्मान् ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यदि भवान् सर्वेभ्यो ब्रह्मचर्येण विद्यादानं दापयेद् ऋत्विजो यजमानं च सर्वदा रक्षेस्तर्हि स्वास्थ्येन पूर्णं राज्यैश्वर्यं प्राप्नुयादिति ॥१०॥ अत्राऽग्निविद्वद्राजवीरप्रजारक्षणादिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्थं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जर तू सर्व माणसांना ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्यादान केलेस व ऋत्विज आणि यजमानांचे रक्षण केलेस तर शांतपणे पूर्ण राज्याचे ऐश्वर्य प्राप्त होऊ शकते. ॥ १० ॥