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प्र वा॑वृजे सुप्र॒या ब॒र्हिरे॑षा॒मा वि॒श्पती॑व॒ बीरि॑ट इयाते। वि॒शाम॒क्तोरु॒षसः॑ पू॒र्वहू॑तौ वा॒युः पू॒षा स्व॒स्तये॑ नि॒युत्वा॑न् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vāvṛje suprayā barhir eṣām ā viśpatīva bīriṭa iyāte | viśām aktor uṣasaḥ pūrvahūtau vāyuḥ pūṣā svastaye niyutvān ||

पद पाठ

प्र। व॒वृजे॒। सु॒ऽप्र॒या। ब॒र्हिः। ए॒षा॒म्। आ। वि॒श्पती॑ इ॒वेति वि॒श्पती॑ऽइव। बीरि॑टे। इ॒या॒ते॒ इति॑। वि॒शाम्। अ॒क्तोः। उ॒षसः॑। पू॒र्वऽहू॑तौ। वा॒युः। पू॒षा। स्व॒स्तये॑। नि॒युत्वा॑न् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:39» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो स्त्री-पुरुष (बीरिटे) अन्तरिक्ष में सूर्य और चन्द्रमा के समान (इयाते) जाते हैं (विश्पतीव) वा प्रजा पालनेवाले राजा के समान (अक्तोः) रात्रि की (उषसः) और दिन की (पूर्वहूतौ) अगले विद्वानों ने की स्तुति के निमित्त जाते हैं वा (पूषा) पुष्टि करनेवाले (वायुः) प्राण के समान (नियुत्वान्) नियमकर्ता ईश्वर (विशाम्) प्रजाजनों के (स्वस्तये) सुख के लिये हो (एषाम्) इन में से जो कोई (सुप्रयाः) सब को अच्छे प्रकार तृप्त करता है वा (बर्हिः) उत्तम सब का बढ़ानेवाला कर्म(आ, प्र, वावृजे) सब ओर से अच्छे प्रकार प्राप्त होता है, उन सब का सब सत्कार करें ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सदैव जो स्त्री-पुरुष न्यायकारी राजा के समानप्रजा पालना, ईश्वर के समान न्यायाचरण, पवन के समान प्रिय पदार्थ पहुँचाना और संन्यासी के तुल्य पक्षपात और मोहादि दोष त्याग करनेवाले होते हैं, वे सर्वार्थ सिद्ध हों ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह ॥

अन्वय:

यौ स्त्रीपुरुषौ बीरिटे सूर्याचन्द्रमसाविवेयाते विश्पतीवाक्तोरुषसः पूर्वहूतावियाते पूषा वायुरिव नियुत्वानीश्वरो विशां स्वस्तयेऽस्तु एषां मध्यात् यः कश्चित्सुप्रया बर्हिरा प्र वावृजे तान् सर्वान् सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वावृजे) व्रजति (सुप्रयाः) यस्सर्वान् सुष्ठु प्रीणाति (बर्हिः) उत्तमं सर्वेषां वर्धकं कर्म (एषाम्) मनुष्याणां मध्ये (आ) समन्तात् (विश्पतीव) विशां प्रजानां पालको राजेव (बीरिटे) अन्तरिक्षे (इयाते) गच्छतः (विशाम्) प्रजानाम् (अक्तोः) रात्रेः (उषसः) दिवसस्य (पूर्वहूतौ) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतायां स्तुतौ (वायुः) प्राण इव (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (स्वस्तये) सुखाय (नियुत्वान्) नियन्तेश्वरः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सदैव यौ स्त्रीपुरुषौ न्यायकारिराजवत् प्रजापालनमीश्वरवन्न्यायाचरणं वायुवत् प्रियप्रापणं संन्यासिवत्पक्षपातमोहादिदोषरहितौ स्यातां तौ सर्वार्थसिद्धौ भवेताम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे स्त्री, पुरुष सदैव न्यायी, राजाप्रमाणे प्रजेचे पालनकर्ते, ईश्वराप्रमाणे न्यायी, वायूप्रमाणे प्रिय पदार्थ वहन करणारे, संन्याशाप्रमाणे पक्षपात व मोह इत्यादी दोषांचा त्याग करणारे असतात ते सर्वार्थाने सिद्ध असतात. ॥ २ ॥