ऊ॒र्ध्वो अ॒ग्निः सु॑म॒तिं वस्वो॑ अश्रेत्प्रती॒ची जू॒र्णिर्दे॒वता॑तिमेति। भे॒जाते॒ अद्री॑ र॒थ्ये॑व॒ पन्था॑मृ॒तं होता॑ न इषि॒तो य॑जाति ॥१॥
ūrdhvo agniḥ sumatiṁ vasvo aśret pratīcī jūrṇir devatātim eti | bhejāte adrī rathyeva panthām ṛtaṁ hotā na iṣito yajāti ||
ऊ॒र्ध्वः। अ॒ग्निः। सु॒ऽम॒तिम्। वस्वः॑। अ॒श्रे॒त्। प्र॒ती॒ची। जू॒र्णिः। दे॒वऽता॑तिम्। ए॒ति॒। भे॒जाते॑। अद्री॒ इति॑। र॒थ्या॑ऽइव। पन्था॑म्। ऋ॒तम्। होता॑। नः॒। इ॒षि॒तः। य॒जा॒ति॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सात ऋचावाले उनतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् स्त्री-पुरुष क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वांसौ स्त्रीपुरुषौ किं कुर्यातामित्याह ॥
या जूर्णिः प्रतीची विदुषी पत्नी ऊर्ध्वोऽग्निरिव देवतातिं सुमतिमश्रेत् रथ्येवर्तं पन्थामेति यथाऽद्री वस्वो भेजाते यथेषितो होता नो यजाति तान् तं च सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विश्वेदेवांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.