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अ॒भि ये मि॒थो व॒नुषः॒ सप॑न्ते रा॒तिं दि॒वो रा॑ति॒षाचः॑ पृथि॒व्याः। अहि॑र्बु॒ध्न्य॑ उ॒त नः॑ शृणोतु॒ वरू॒त्र्येक॑धेनुभि॒र्नि पा॑तु ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi ye mitho vanuṣaḥ sapante rātiṁ divo rātiṣācaḥ pṛthivyāḥ | ahir budhnya uta naḥ śṛṇotu varūtry ekadhenubhir ni pātu ||

पद पाठ

अ॒भि। ये। मि॒थः। व॒नुषः॑। सप॑न्ते। रा॒तिम् दि॒वः। रा॒ति॒ऽसाचः॑। पृ॒थि॒व्याः। अहिः॑। बु॒ध्न्यः॑। उ॒त। नः॒। शृ॒णो॒तु॒। वरू॑त्री। एक॑धेनुऽभिः। नि। पा॒तु॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:38» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (दिवः) मनोहर (रातिषाचः) दान देनेवाले के (एकधेनुभिः) एक वाणी ही है सहायक जिनकी उनके साथ (मिथः) परस्पर (वनुषः) माँगते हुए (नः) हम लोगों की (रातिम्) देने को (अभि, सपन्ते) अच्छे प्रकार सब ओर से नियम करते हैं (उत) और (वरूत्री) स्वीकार करने योग्य माता (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध हुए (अहिः) मेघ के समान हम लोगों को (पृथिव्याः) भूमि और अन्तरिक्ष के बीच (नि, पातु) निरन्तर रक्षा करे, वह समस्त जनमात्र हमारा पढ़ा हुआ (शृणोतु) सुने ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो हम लोगों को विद्याहीन देख निन्दा करते और विद्वान् देख प्रशंसा करते और एकता के लिये प्रेरणा देते हैं, वे ही हमारे कल्याण करनेवाले होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः परस्परं किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

ये दिवो रातिषाच एकधेनुभिस्सह मिथो वनुषो नो रातिमाभि सपन्ते उतापि वरूत्री बुध्न्योऽहिरिवास्मान् पृथिव्या नि पातु स सर्वोजनोऽस्माकमधीतं शृणोतु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) (ये) (मिथः) परस्परम् (वनुषः) याचमानान् (सपन्ते) आक्रुष्यन्ति (रातिम्) (दिवः) कमनीयस्य (रातिषाचः) दानस्य दातुः (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा मध्ये (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) बुध्न्येऽन्तरिक्षे भवः (उत) अपि (नः) अस्मान् (शृणोतु) (वरूत्री) वरणीया नीतियुक्ता माता (एकधेनुभिः) एकैव धेनुर्वाक् सहायभूता येषां तैः सह (नि) पातु ॥५॥
भावार्थभाषाः - येऽस्मान् विद्याहीनान् दृष्ट्वा निन्दन्ति विदुषो दृष्ट्वा प्रशंसन्त्यैकमत्याय प्रेरयन्ति त एवास्माकं कल्याणकरा भवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे आम्हाला विद्याहीन पाहून निंदा करतात व विद्वान पाहून प्रशंसा करतात व एकत्वाची प्रेरणा देतात तेच आमचे कल्याणकर्ते असतात. ॥ ५ ॥