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अ॒भि यं दे॒व्यदि॑तिर्गृ॒णाति॑ स॒वं दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्जु॑षा॒णा। अ॒भि स॒म्राजो॒ वरु॑णो गृणन्त्य॒भि मि॒त्रासो॑ अर्य॒मा स॒जोषाः॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi yaṁ devy aditir gṛṇāti savaṁ devasya savitur juṣāṇā | abhi samrājo varuṇo gṛṇanty abhi mitrāso aryamā sajoṣāḥ ||

पद पाठ

अ॒भि। यम्। दे॒वी। अदि॑तिः। गृ॒णाति॑। स॒वम्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। जु॒षा॒णा। अ॒भि। स॒म्ऽराजः॑। वरु॑णः। गृ॒ण॒न्ति॒। अ॒भि। मि॒त्रासः॑। अ॒र्य॒मा। स॒ऽजोषाः॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:38» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसकी प्रशंसा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (सवितुः) प्रेरणा देनेवाला अन्तर्यामी (देवस्य) सर्व सुखदाता जगदीश्वर के (सवम्) उत्पन्न किये जगत् की (जुषाणा) सेवा करती हुई (देवी) विदुषी (अदितिः) माता जिस को (अभि, गृणाति) सम्मुख कहती है वा (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् जन (सजोषाः) समान प्रीति सेवनेवाला (अर्यमा) न्यायाधीश और (मित्रासः) सब के सुहृद् (सम्राजः) अच्छे प्रकार प्रकाशमान चक्रवर्ती राजजन (यम्) जिसकी (अभि, गृणन्ति) सब ओर से स्तुति करते हैं, उसी की सब निरन्तर स्तुति करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम उसी प्रशंसा करने योग्य परमेश्वर की स्तुति करो, जिस की स्तुति करके विदुषी स्त्री राजा और विद्वान् जन चाहा हुआ फल पाते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कस्य प्रशंसा कार्येत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः सवितुर्देवस्य सवं जुषाणा देव्यदितिर्यमभि गृणाति वरुणस्सजोषा अर्यमा यमभिगृणाति यं मित्रासस्सम्राजोऽभिगृणन्ति तमेव सर्वे सततं स्तुवन्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (देवी) विदुषी (अदितिः) माता (गृणाति) (सवम्) प्रसूतं जगत् (देवस्य) सर्वसुखप्रदातुः (सवितुः) प्रेरकस्यान्तर्यामिणः (जुषाणा) सेवमाना (अभि) (सम्राजः) सम्यग्राजमानश्चक्रवर्तिनो राजानः (वरुणः) वरो विद्वान् (गृणन्ति) स्तुवन्ति (अभि) (मित्रासः) सर्वस्य सुहृदः (अर्यमा) न्यायाधीशः (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं तस्यैव प्रशंसनीयस्य परमेश्वरस्यैव स्तुतिं कुरुत यं स्तुत्वा विदुष्यः स्त्रियः राजानो विद्वांसश्चाऽभीष्टं प्राप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही प्रशंसा करण्यायोग्य त्याच परमेश्वराची स्तुती करा, ज्याची स्तुती करून विदुषी स्त्री, राजा व विद्वान लोक इच्छित फळ प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥