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शं न॒ इन्द्रो॒ वसु॑भिर्दे॒वो अ॑स्तु॒ शमा॑दि॒त्येभि॒र्वरु॑णः सु॒शंसः॑। शं नो॑ रु॒द्रो रु॒द्रेभि॒र्जला॑षः॒ शं न॒स्त्वष्टा॒ ग्नाभि॑रि॒ह शृ॑णोतु ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaṁ na indro vasubhir devo astu śam ādityebhir varuṇaḥ suśaṁsaḥ | śaṁ no rudro rudrebhir jalāṣaḥ śaṁ nas tvaṣṭā gnābhir iha śṛṇotu ||

पद पाठ

शम्। नः॒। इन्द्रः॑। वसु॑ऽभिः। दे॒वः। अ॒स्तु॒। शम्। आ॒दि॒त्येभिः। वरु॑णः। सु॒ऽशंसः॑। शम्। नः॒। रु॒द्रः। रु॒द्रेभिः॑। जला॑षः। शम्। नः॒। त्वष्टा॑। ग्नाभिः॑। इ॒ह। शृ॒णो॒तु॒ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:35» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को क्या जान के और संयुक्त कर क्या पाने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर वा विद्वान् आपके सहाय से और परीक्षा से (इह) यहाँ (वसुभिः) पृथिव्यादिकों के साथ (देवः) दिव्य गुणकर्मस्वभावयुक्त (इन्द्रः) बिजुली या सूर्य (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखरूप और (आदित्येभिः) संवत्सर के महीनों के साथ (सुशंसः) प्रशंसित प्रशंसा करने योग्य (वरुणः) जल समुदाय (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखरूप (अस्तु) हो (रुद्रेभिः) जीव प्राणों के साथ (जलाषः) दुःख निवारण करनेवाला (रुद्रः) परमात्मा वा जीव (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखरूप हो (ग्नाभिः) वाणियों के साथ (त्वष्टा) सर्व वस्तुविच्छेद करनेवाला अग्नि के समान परीक्षक विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुख (शृणोतु) सुने ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो पृथिवी, आदित्य और वायु की विद्या से ईश्वर, जीव और प्राणों को जान यहाँ इनकी विद्या को पढ़ा परीक्षा कर सब को विद्वान् और उद्योगी करते हैं, वे इस संसार में किस-किस ऐश्वर्य को नहीं प्राप्त होते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं विज्ञाय सम्प्रयुज्य किं प्राप्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे जगदीश्वर विद्वन् वा ! भवत्सहायपरीक्षाभ्यामिह वसुभिस्सह देव इन्द्रो नः शमादित्येभिस्सह सुशंसो वरुणो नः शमस्तु रुद्रेभिस्सह जलाषो रुद्रो नश्शमस्तु ग्नाभिस्सह त्वष्टा नश्शं शृणोतु ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शम्) (नः) (इन्द्रः) विद्युत्सूर्यो वा (वसुभिः) पृथिव्यादिभिस्सह (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावयुक्तः (अस्तु) (शम्) (आदित्येभिः) संवत्सरस्य मासैः (वरुणः) जलसमुदायः (सुशंसः) प्रशस्तप्रशंसनीयः (शम्) (नः) (रुद्रः) परमात्मा जीवो वा (रुद्रेभिः) जीवैः प्राणैर्वा (जलाषः) दुःखनिवारकः (शम्) (नः) (त्वष्टा) सर्ववस्तुविच्छेदकोऽग्निरिव परीक्षको विद्वान् (ग्नाभिः) वाग्भिः। ग्नेति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (इह) अस्मिन् संसारे (शृणोतु) ॥६॥
भावार्थभाषाः - ये पृथिव्यादित्यवायुविद्ययेश्वरजीवप्राणान् विज्ञायेहैतद्विद्यामध्याप्य परीक्षां कृत्वा सर्वान् विदुष उद्योगिनः कुर्वन्ति तेऽत्र किं किमैश्वर्यं नाप्नुवन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे पृथ्वी, आदित्य व वायूच्या विद्येने ईश्वर, जीव व प्राण यांना जाणून त्यांच्या विद्येचे अध्यापन करून, परीक्षा करून सर्वांना विद्वान व उद्योगी करतात ते या जगात कोणते ऐश्वर्य प्राप्त करू शकत नाहीत? ॥ ६ ॥