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ता नो॑ रासन्राति॒षाचो॒ वसू॒न्या रोद॑सी वरुणा॒नी शृ॑णोतु। वरू॑त्रीभिः सुशर॒णो नो॑ अस्तु॒ त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ वि द॑धातु॒ रायः॑ ॥२२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā no rāsan rātiṣāco vasūny ā rodasī varuṇānī śṛṇotu | varūtrībhiḥ suśaraṇo no astu tvaṣṭā sudatro vi dadhātu rāyaḥ ||

पद पाठ

ता। नः॒। रा॒स॒न्। रा॒ति॒ऽसाचः॑। वसू॒नि। आ। रोद॑सी॒ इति॑। व॒रु॒णा॒नी। शृ॒णो॒तु॒। वरू॑त्रीभिः। सु॒ऽश॒र॒णः। नः॒। अ॒स्तु॒। त्वष्टा॑। सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑ ॥२२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:22 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजादि प्रजाजनों में कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! आप (वरूत्रीभिः) वरुणसम्बन्धी विद्याओं से (वरुणानी) जलादि पदार्थयुक्त (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी के समान (रातिषाचः) दान सम्बन्ध करते हुए (नः) हम लोगों के लिये (ता) उन (वसूनि) धनों को (आ, रासन्) अच्छे प्रकार देवें। हे राजन् ! (सुदत्रः) अच्छे दानयुक्त (त्वष्टा) दुःखविच्छेदक (सुशरणः) सुन्दर आश्रम जिनका वह आप (नः) हमारे रक्षक (अस्तु) हों हमारे लिये (रायः) धनों को (वि, दधातु) विधान कीजिये। हमारी वार्ता (शृणोतु) सुनिये ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो राजपुरुष सूर्य और भूमि के तुल्य प्रजाजनों को धनी करते, उनके न्याय करने को बातें सुनते और यथावत् पुरुषार्थ से लक्ष्मीवान् करते हैं, वे ही पूर्ण सुखवाले होते हैं ॥२२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजादयः प्रजासु कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! भवन्तो वरूत्रीभिर्वरुणानी रोदसी इव रातिषाचः सन्तो नस्ता वसून्या रासन् हे राजन् ! सुदत्रस्त्वष्टा सुशरणो भवान् नो रक्षकोऽस्तु नो रायो विदधातु अस्माकं वार्ताः शृणोतु ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तानि (नः) अस्मभ्यम् (रासन्) प्रदद्युः (रातिषाचः) ये रातिं सचन्ते सम्बध्नन्ति ते (वसूनि) धनानि (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वरुणानी) जलादिपदार्थयुक्ते (शृणोतु) (वरूत्रीभिः) वरणीयाभिर्विद्याभिः (सुशरणः) शोभनं शरणमाश्रयो यस्य सः (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (त्वष्टा) दुःखविच्छेदकः (सुदत्रः) सुष्ठुदानः (वि, दधातु) (रायः) धनानि ॥२२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषाः सूर्यभूमिवत् प्रजाः धनयन्ति तासां न्यायकरणाय वार्ताः शृण्वन्ति यथावत्पुरुषार्थेन श्रीमतीः प्रकुर्वन्ति त एवात्रालंसुखा भवन्ति ॥२२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजपुरुष सूर्य व भूमीप्रमाणे प्रजाजनांना धनवान करतात, न्यायी बनण्यासाठी वार्ता ऐकतात व यथायोग्य पुरुषार्थाने श्रीमंत होतात तेच पूर्ण सुख प्राप्त करतात. ॥ २२ ॥