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उ॒त न॑ ए॒षु नृषु॒ श्रवो॑ धुः॒ प्र रा॒ये य॑न्तु॒ शर्ध॑न्तो अ॒र्यः ॥१८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta na eṣu nṛṣu śravo dhuḥ pra rāye yantu śardhanto aryaḥ ||

पद पाठ

उ॒त। नः॒। ए॒षु। नृषु॑। श्रवः॑। धुः॒। प्र। रा॒ये। य॒न्तु॒। शर्ध॑न्तः। अ॒र्यः ॥१८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:18 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:8 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो (नः) हमारे (एषु) इन व्यवहारों में (राये) धन के लिये (अवः) अन्न वा श्रवण को (धुः) धारण करें वे हम लोगों को प्राप्त होवें (उत) और जो (नः) हम लोगों को (शर्धन्तः) बली करते हुए (नृषु) नायक मनुष्यों में (अर्यः) शत्रुजन हमारे राज्य आदि ऐश्वर्य को चाहें वे दूर (प्र, यन्तु) पहुँचें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सज्जनों के निकट और दुष्टों के दूर रह कर लक्ष्मी की उन्नति करें ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! ये न एषु राये श्रवो धुस्तेऽस्मान् प्राप्नुवन्तूत ये नः शर्धन्तो नृष्वर्योऽस्माकं राज्यादिकमिच्छेयुस्ते दूरं प्र यन्तु ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (नः) अस्माकम्। अत्र वा छन्दःसीत्यवसानम्। (एषु) (नृषु) नायकेषु मनुष्येषु (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (धुः) दध्युः (प्र) (राये) धनाय (यन्तु) गच्छन्तु (शर्धन्तः) बलवन्तः (अर्यः) अरयश्शत्रवः ॥१८॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सज्जनानां निकटे दुष्टानां दूरे स्थित्वा श्रीरुन्नेया ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सज्जनांजवळ राहावे व दुष्टांपासून दूर राहून लक्ष्मी वाढवावी. ॥ १८ ॥