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स॒जूर्दे॒वेभि॑र॒पां नपा॑तं॒ सखा॑यं कृध्वं शि॒वो नो॑ अस्तु ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sajūr devebhir apāṁ napātaṁ sakhāyaṁ kṛdhvaṁ śivo no astu ||

पद पाठ

स॒ऽजूः। दे॒वेभिः॑। अ॒पाम्। नपा॑तम्। सखा॑यम्। कृ॒ध्व॒म्। शि॒वः। नः॒। अ॒स्तु॒ ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:15 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजजन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (देवेभिः) विद्वानों से वा पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों के (सजूः) साथ वर्त्तमान सूर्यमण्डल (अपां नपातम्) जलों के उस व्यवहार को जो नहीं नष्ट होता मेघ के समान करता है, वैसे आप (नः) हमारे वा हमारे लिये (शिवः) मङ्गलकारी (अस्तु) हों, हे विद्वानो ! ऐसे राजा को हमारा (सखायम्) मित्र (कृध्वम्) कीजिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य आदि पदार्थ जगत् में मित्र के समान वर्त कर सुखकारी होते हैं, वैसे ही राजजन सब के मित्र होकर मङ्गलकारी होते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजजनाः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथा देवेभिस्सजूस्सूर्योऽपां नपातं करोति तथा भवान् नः शिवोऽस्तु। हे विद्वांस ! ईदृशं राजानं नस्सखायं यूयं कृध्वम् ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सजूः) सह वर्त्तमानः (देवेभिः) विद्वद्भिर्दिव्यैः पृथिव्यादिभिर्वा (अपाम्) जलानाम् (नपातम्) यो न पतति न नश्यति तं मेघमिव (सखायम्) सुहृदम् (कृध्वम्) कुरुध्वम् (शिवः) मङ्गलकारी (नः) अस्मभ्यमस्माकं वा (अस्तु) ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्यादयः पदार्थाः जगति मित्रवद्वर्तित्वा सुखकारिणो भवन्ति तथैव राजजनाः सर्वेषां सखायो भूत्वा मङ्गलकारिणो भवन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सूर्य इत्यादी पदार्थ जगात मित्राप्रमाणे वागून सुखकारी ठरतात तसेच राजजन सर्वांचे मित्र बनून कल्याण करतात. ॥ १५ ॥