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जुष्टी॑ नरो॒ ब्रह्म॑णा वः पितॄ॒णामक्ष॑मव्ययं॒ न किला॑ रिषाथ। यच्छक्व॑रीषु बृह॒ता रवे॒णेन्द्रे॒ शुष्म॒मद॑धाता वसिष्ठाः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

juṣṭī naro brahmaṇā vaḥ pitṝṇām akṣam avyayaṁ na kilā riṣātha | yac chakvarīṣu bṛhatā raveṇendre śuṣmam adadhātā vasiṣṭhāḥ ||

पद पाठ

जुष्टी॑। न॒रः॒। ब्रह्म॑णा। वः॒। पि॒तॄ॒णाम्। अक्ष॑म्। अ॒व्य॒य॒म्। न। किल॑। रि॒षा॒थ॒। यत्। शक्व॑रीषु। बृ॒ह॒ता। रवे॑ण। इन्द्रे॑। शुष्म॑म्। अद॑धात। व॒सि॒ष्ठाः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:33» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करके क्या नहीं करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसिष्ठाः) धन में अत्यन्त वास करते हुए (नरः) नायक मनुष्यो ! तुम (यत्) जिस (बृहता) महान् (रवेण) शब्द से (शक्वरीषु) शक्तियुक्त सेनाओं में और (इन्द्रे) परमैश्वर्य में (शुष्मम्) बल को (अदधात) धारण करते हो (जुष्टी) प्रीति वा सेवा से तथा (ब्रह्मणा) धन से (वः) आप के (पितॄणाम्) जनक अर्थात् पिता आदि का जो (अव्ययम्) नाशरहित (अक्षम्) व्याप्त बल उसे (किल) निश्चय कर तुम (न, रिषाथ) नहीं नष्ट करते हो, उससे सब की रक्षा करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ा के दुष्टों को मार धन की वृद्धि से सब के अर्थ जो नष्ट नहीं, उस सुख को प्रीति से बढ़ाते, वे बड़ी कीर्ति को पाते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा किन्न कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वसिष्ठा नरो ! यूयं यद्बृहता रवेण शक्वरीष्विन्द्रे शुष्ममदधात जुष्टी ब्रह्मणा वः पितॄणामव्ययमक्षं किल यूयं न रिषाथ तेन सर्वस्य रक्षणं विधत्त ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जुष्टी) जुष्ट्व्या प्रीत्या सेवया वा (नरः) नेतारः (ब्रह्मणा) धनेन (वः) युष्माकम् (पितॄणाम्) जनकादीनाम् (अक्षम्) व्याप्तम् (अव्ययम्) नाशरहितम् (न) निषेधे (किल) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (रिषाथ) हिंसथ (यत्) येन (शक्वरीषु) शक्तिमतीषु सेनासु (बृहता) महता (रवेण) शब्देन (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (शुष्मम्) बलम् (अदधात) धर्त। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वसिष्ठाः) धनेऽत्यन्तं वासं कुर्वन्तः ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः स्वशक्तिं वर्धयित्वा दुष्टान् हिंसित्वा धनवृद्ध्या सर्वार्थमक्षीणं सुखं प्रीत्या वर्धयन्ति ते बृहतीं कीर्तिमाप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे आपली शक्ती वाढवून, दुष्टांचा नाश करून धनाची वृद्धी करतात व प्रेमपूर्वक सुख वाढवितात त्यांना महान कीर्ती प्राप्त होते. ॥ ४ ॥