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सु॒नोता॑ सोम॒पाव्ने॒ सोम॒मिन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑। पच॑ता प॒क्तीरव॑से कृणु॒ध्वमित्पृ॒णन्नित्पृ॑ण॒ते मयः॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sunotā somapāvne somam indrāya vajriṇe | pacatā paktīr avase kṛṇudhvam it pṛṇann it pṛṇate mayaḥ ||

पद पाठ

सु॒नोत॑। सो॒म॒ऽपाव्ने॑। सोम॑म्। इन्द्रा॑य। व॒ज्रिणे॑। पच॑त। प॒क्तीः। अव॑से। कृ॒णु॒ध्वम्। इत्। पृ॒णन्। इत्। पृ॒ण॒ते। मयः॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:32» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को वैद्यों से क्या कराना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वैद्यशास्त्रवेत्ता विद्वानो ! तुम (सोमपाव्ने) बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को पीनेवाले के लिये (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (सुनोता) उत्पन्न करो (वज्रिणे) शस्त्र और अस्त्रों को धारण करने और (इन्द्राय) दुष्ट शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले के लिये ऐश्वर्य्य को उत्पन्न करो सब की (अवसे) रक्षा के लिये (पक्तीः) पाकों को (पचत) पकाओ (कृणुध्वम्, इत्) करो ही जैसे (पृणन्) पालना करता हुआ विद्वान् (मयः) सुख को (पृणते) पालता है, वैसे (इत्) ही प्रजाजनों के लिये सुख पालो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो वैद्य हों वे उत्तम ओषधि, प्रशंसायुक्त रोगनाशक रस और उत्तम अन्न पाकों की सब मनुष्यों के प्रति शिक्षा दें, जिससे पूर्ण सुख हो ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा वैद्यैः किं कारयितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे वैद्यशास्त्रविदो विद्वांसो ! यूयं सोमपाव्ने सोमं सुनोता वज्रिण इन्द्राय सोमं सुनोत सर्वेषामवसे पक्तीः पचत कृणुध्वमिद् यथा पृणन् विद्वान् मयः पृणते तथेत्प्रजाभ्यो मयः पृणत ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुनोत) निष्पादयत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सोमपाव्ने) महौषधिरसम् पात्रे (सोमम्) ऐश्वर्यम् (इन्द्राय) दुष्टशत्रुविदारकाय (वज्रिणे) (पचत) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पक्तीः) पाकान् (अवसे) रक्षणाद्याय (कृणुध्वम्) (इत्) एव (पृणन्) पालयन् (इत्) एव (पृणते) पालयति (मयः) सुखम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये वैद्याः स्युस्त उत्तमान्यौषधानि प्रशस्तान् रोगनाशकान् रसानुत्तमानन्नपाकाँश्च सर्वान् मनुष्यान् प्रतिशिक्षेरन् येन पूर्णं सुखं स्यात् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वैद्यांनी उत्तम औषधी, प्रशंसायुक्त रोगनाशक रस व उत्तम अन्न याबाबत सर्वांना शिक्षण द्यावे. ज्यामुळे पूर्ण सुख प्राप्त व्हावे. ॥ ८ ॥