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श्रव॒च्छ्रुत्क॑र्ण ईयते॒ वसू॑नां॒ नू चि॑न्नो मर्धिष॒द्गिरः॑। स॒द्यश्चि॒द्यः स॒हस्रा॑णि श॒ता दद॒न्नकि॒र्दित्स॑न्त॒मा मि॑नत् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śravac chrutkarṇa īyate vasūnāṁ nū cin no mardhiṣad giraḥ | sadyaś cid yaḥ sahasrāṇi śatā dadan nakir ditsantam ā minat ||

पद पाठ

श्रव॑त्। श्रुत्ऽक॑र्णः। ई॒य॒ते॒। वसू॑नाम्। नु। चि॒त्। नः॒। म॒र्धि॒ष॒त्। गिरः॑। स॒द्यः। चि॒त्। यः। स॒हस्रा॑णि। स॒ता। दद॑त्। नकिः॑। दित्स॑न्तम्। आ। मि॒न॒त् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:32» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (श्रुत्कर्णः) श्रुति में कान रखनेवाला (सद्यः) शीघ्र (श्रवत्) सुने (नः) हमारे (वसूनाम्) धनों के सम्बन्ध में (गिरः) अच्छी शिक्षा की भरी हुई वाणियों को (चित्) भी (नु) शीघ्र (मर्धिषत्) चाहे (सहस्राणि) हजारों (शता) सैकड़ों पदार्थों को (ददत्) देता और (ईयते) पहुँचाता है (दित्सन्तम्) देना चाहते हुए को (नकिः) नहीं (आ, मिनत्) विनाशे (चित्) वही सर्वदा सुखी होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से सब विद्याओं को सुनते, अच्छी शिक्षायुक्त वाणियों को चाहते और औरों को अतुल विज्ञान देते हैं, वे दुःख नहीं पाते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

यः श्रुत्कर्णः सद्यः श्रवन्नो वसूनां गिरश्चिन्नु मर्धिषत्सहस्राणि शतां ददन्नीयते दित्सन्तं नकिरामिनत् स चित्सर्वदा सुखी भवति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रवत्) शृणुयात् (श्रुत्कर्णः) श्रुतौ कर्णे यस्य सः (ईयते) गच्छति (वसूनाम्) धनानाम् (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (नः) अस्माकम् (मर्धिषत्) अभिकाङ्क्षेत् (गिरः) सुशिक्षिता वाचः (सद्यः) (चित्) अपि (यः) (सहस्राणि) (शता) असंख्यानि (ददत्) ददाति (नकिः) निषेधे (दित्सन्तम्) दातुमिच्छन्तम् (आ) (मिनत्) हिंस्यात् ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये दीर्घेण ब्रह्मचर्येण सर्वा विद्याः शृण्वन्ति विद्यासुशिक्षिता वाच इच्छन्त्यन्येभ्योऽतुलं विज्ञानं ददति ते दुःखं नाप्नुवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे दीर्घ ब्रह्मचर्य पालन करून सर्व विद्येचे श्रवण करतात. चांगल्या सुसंस्कृत वाणीची कामना करतात व इतरांना खूप विज्ञान देतात ते दुःखी होत नाहीत. ॥ ५ ॥