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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

शंसेदु॒क्थं सु॒दान॑व उ॒त द्यु॒क्षं यथा॒ नरः॑। च॒कृ॒मा स॒त्यरा॑धसे ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaṁsed ukthaṁ sudānava uta dyukṣaṁ yathā naraḥ | cakṛmā satyarādhase ||

पद पाठ

शंस॑। इत्। उ॒क्थम्। सु॒ऽदान॑वे। उ॒त। द्यु॒क्षम्। यथा॑। नरः॑। च॒कृ॒म। स॒त्यऽरा॑धसे ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:31» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (यथा) जैसे (नरः) मनुष्य हम लोग (सुदानवे) उत्तम दान के लिये वा (सत्यराधसे) सत्य जिसका धन है उसके लिये (द्युक्षम्) मनोहर (उक्थम्) प्रशंसनीय काम (चकृम) करें, वैसे आप (इत्) ही (शंसे) प्रशंसा करें (उत) ही ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे विद्वानो ! जिसका धर्म से उत्पन्न हुआ धन है और सुपात्रों के लिये दान वर्त्तमान है, उसी को उत्तम जानो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथा नरो वयं सुदानवे सत्यराधसे द्युक्षमुक्थं चकृम तथा त्वमिच्छंस उत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शंसे) प्रशंस (इत्) एव (उक्थम्) प्रशंसनीयम् (सुदानवे) उत्तमदानाय (उत) अपि (द्युक्षम्) कमनीयम् (यथा) (नरः) मनुष्याः (चकृम) कुर्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सत्यराधसे) सत्यं राधो धनं यस्य तस्मै ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वांसो ! यस्य धर्मजं धनं सुपात्रेभ्यो दानं च वर्त्तते तमेवोत्तमं विजानीत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! ज्याचे धन धर्माने उत्पन्न झालेले असते व सुपात्रांना दान केले जाते त्यालाच उत्तम समजा. ॥ २ ॥