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वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vocemed indram maghavānam enam maho rāyo rādhaso yad dadan naḥ | yo arcato brahmakṛtim aviṣṭho yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

पद पाठ

वो॒चेम॑। इत्। इन्द्र॑म्। म॒घऽवा॑नम्। ए॒न॒म्। म॒हः। रा॒यः। राध॑सः। यत्। दद॑त्। नः॒। यः। अर्च॑तः। ब्रह्म॑ऽकृतिम्। अवि॑ष्ठः। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:28» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या उपदेश करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (यः) जो (अर्चतः) सत्कार करते हुए (नः) हम लोगों के (महः) महान् (राधसः) समृद्ध (रायः) धन सम्बन्ध के (अविष्ठः) प्राप्त होनेवाला (ब्रह्मकृतिम्) जिसके धन की क्रिया हैं (एनम्) इस (मघवानम्) परमैश्वर्यवान् (इन्द्रम्) दुष्ट शत्रुओं के विदीर्ण करनेवाले को (यत्) जो (ददत्) देवें (इत्) उसी को हम लोग (वोचेम) कहें (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हमारी (सदा) सर्वदैव (पात) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे हम लोग राजा आदि मनुष्यों के प्रति सत्य का सर्वदा उपदेश करें, वैसे तुम भी उपदेश करो, ऐसे परस्पर की रक्षा कर उन्नति विधान करनी चाहिये ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, राजगुणों और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठाईसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किमुपदिशेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! योऽर्चतो नो महो राधसो रायोऽविष्ठो ब्रह्मकृतिमेनं मघवानमिन्द्रं यद्ददत्तमिद्वयं वोचेम यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वोचेम) उपदिशेम (इत्) (इन्द्रम्) दुष्टशत्रुविदारकम् (मघवानम्) परमैश्वर्यवन्तम् (एनम्) (महः) महतः (रायः) धनस्य (राधसः) समृद्धस्य (यत्) (ददत्) दद्यात् (नः) अस्मान् (यः) (अर्चतः) सत्कुर्वतः (ब्रह्मकृतिम्) ब्रह्मणो धनस्य कृतिः क्रिया यस्य तम् (अविष्ठः) अतिशयेन अविता (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यथा वयं राजादीन् मनुष्यान् प्रति सत्यं सर्वदोपदिशेम तथा यूयमप्युपदिशतैवं परस्परेषां रक्षां विधायोन्नतिर्विधेयेति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्तेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टाविंशतितमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जसे आम्ही राजा इत्यादींना सदैव सत्याचा उपदेश करतो तसा तुम्हीही करा. असे परस्पर रक्षण करून उन्नती केली पाहिजे. ॥ ५ ॥