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ए॒भिर्न॑ इ॒न्द्राह॑भिर्दशस्य दुर्मि॒त्रासो॒ हि क्षि॒तयः॒ पव॑न्ते। प्रति॒ यच्चष्टे॒ अनृ॑तमने॒ना अव॑ द्वि॒ता वरु॑णो मा॒यी नः॑ सात् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ebhir na indrāhabhir daśasya durmitrāso hi kṣitayaḥ pavante | prati yac caṣṭe anṛtam anenā ava dvitā varuṇo māyī naḥ sāt ||

पद पाठ

ए॒भिः। नः॒। इ॒न्द्र॒। अह॑ऽभिः। द॒श॒स्य॒। दुः॒ऽमि॒त्रासः॑। हि। क्षि॒तयः॑। पव॑न्ते। प्रति॑। यत्। च॒ष्टे॒। अनृ॑तम्। अ॒ने॒नाः। अव॑। द्वि॒ता। वरु॑णः। मा॒यी। नः॒। सा॒त् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:28» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दोषों के विदीर्ण करनेवाले ! जो (अनृतम्) झूँठ कहते हैं वे (दुर्मित्रासः) दुष्ट मित्र हैं और जो (हि) निश्चित (क्षितयः) मनुष्य सत्य कहते हैं वे (एभिः) इन वर्त्तमान (अहभिः) दिवसों के साथ (पवन्ते) पवित्र होते हैं इनके साथ आप (नः) हम लोगों को (दशस्य) दीजिये और (अनेनाः) निष्पाप आप (यत्) जिसके (प्रति) प्रति (चष्टे) कहते हैं (द्विता) तथा दो का होना (वरुणः) जो स्वीकार करने योग्य वह और (मायी) उत्तम बुद्धिमान् होता हुआ जन (नः) हम लोगों को सत्य का (अव, सात्) निश्चय कर देवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो यहाँ झूँठ कहते हैं, वे अधर्मात्मा पुरुष हैं और जो सत्य कहते हैं वे धर्मात्मा हैं, ऐसा निश्चय करो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! येऽनृतं वदन्ति ते दुर्मित्रासः सन्ति यो हि क्षितयः सत्यं वदन्ति त एभिरहभिः पवन्त एतैः स त्वं नो दशस्यानेना भवान् यत्प्रति चष्टे द्विता वरुणो मायी सन् नः सत्यमव सात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एभिः) वर्त्तमानैः (नः) अस्मान् (इन्द्र) दोषविदारक (अहभिः) दिवसैस्सह (दशस्य) देहि (दुर्मित्रासः) दुष्टानि तानि मित्राणि (हि) (क्षितयः) मनुष्याः (पवन्ते) पवित्रा भवन्ति (प्रति) (यत्) (चष्टे) वदति (अनृतम्) मिथ्याभाषणम् (अनेनाः) निष्पापः (अव) (द्विता) द्वयोर्भावः (वरुणः) वरणीयः (मायी) उत्तमा प्रज्ञा विद्यते यस्य सः (नः) अस्मान् (सात्) निश्चिनुयात् ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येऽत्राऽसत्यं वदन्ति तेऽधर्मात्मानो ये सत्यं ब्रुवन्ति ते धार्मिका इति निश्चिन्वन्तु ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जे असत्यवचनी असतात ते अधोर्मिक असतात, जे सत्यवचनी असतात ते धार्मिक असतात हे जाणा. ॥ ४ ॥