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य इ॑न्द्र॒ शुष्मो॑ मघवन्ते॒ अस्ति॒ शिक्षा॒ सखि॑भ्यः पुरुहूत॒ नृभ्यः॑। त्वं हि दृ॒ळ्हा म॑घव॒न्विचे॑ता॒ अपा॑ वृधि॒ परि॑वृतं॒ न राधः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ya indra śuṣmo maghavan te asti śikṣā sakhibhyaḥ puruhūta nṛbhyaḥ | tvaṁ hi dṛḻhā maghavan vicetā apā vṛdhi parivṛtaṁ na rādhaḥ ||

पद पाठ

यः। इ॒न्द्र॒। शुष्मः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। ते॒। अस्ति॑। शिक्ष॑। सखि॑ऽभ्यः। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। नृऽभ्यः॑। त्वम्। हि। दृ॒ळ्हा। म॒घ॒ऽव॒न्। विऽचे॑ताः। अप॑। वृ॒धि॒। परि॑ऽवृतम्। न। राधः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:27» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) परम पूजित धनवान् (इन्द्र) परमैश्वर्य देनेवाले ! (यः) जो (ते) आपका (शुष्मः) पुष्कल बलयुक्त व्यवहार (अस्ति) है, हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसा को प्राप्त ! जो आपकी (सखिभ्यः) मित्रों के लिये वा (नृभ्यः) अपने राज्य में नायक मनुष्यों के लिये (शिक्षा) सिखावट है, हे (मघवन्) बहुधनयुक्त ! जो आपके (दृळ्हा) दृढ़ शत्रु सैन्यजन हैं उनसे (विचेताः) विविध प्रकार वा विशिष्ट बुद्धि जिनकी वह (त्वम्) आप (हि) (परिवृतम्) सब ओर से स्वीकार किये (राधः) धन को (न) जैसे वैसे दृढ़ शत्रुसेनाजनों को (अपा, वृधि) दूर कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । वही राजा सदा बढ़ता है, जो अपराधी मित्रों को भी दण्ड देने के बिना नहीं छोड़ता, जो ऐसा सदैव उत्तम यत्न करता है, जिससे कि अपने मित्र उदासीन वा शत्रु अधिक न हों और जो सदैव विद्या और शिक्षा की वृद्धि के लिये प्रयत्न करता है, वही सब दुष्ट और लोककण्टक डाकुओं को निवार के राज्य करने के योग्य होता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे मघवन्निन्द्र ! यस्ते शुष्मोऽस्ति, हे पुरुहूत ! या ते सखिभ्यो नृभ्यः शिक्षाऽस्ति, हे मघवन् ! यानि ते दृळ्हा सैन्यानि सन्ति तैर्विचेतास्त्वं हि परिवृतं राधो न दृळ्हा शत्रुसैन्यान्यपा वृधि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (शुष्मः) पुष्कलबलयुक्तः (मघवन्) परमपूजितधनवत् (ते) तव (अस्ति) (शिक्षा) शासनम् (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (नृभ्यः) स्वराज्ये नायकेभ्यः (त्वम्) (हि) (दृळ्हा) दृढानि शत्रुसैन्यानि (मघवन्) बलधनयुक्त (विचेताः) विविधा विशिष्टा वा चेतः प्रज्ञा यस्य सः (अपा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृधि) दूरीकुरु (परिवृतम्) सर्वतः स्वीकृतम् (न) इव (राधः) धनम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। स एव राजा सदा वर्धते यो प्राप्ताऽपराधमित्राण्यपि दण्डदानेन विना न त्यजति यो हि सदैवं प्रयतते येन स्वस्य मित्रोदासीनशत्रवोऽधिका न भवेयुर्यः सदैव विद्याशिक्षावृद्धये प्रयतते स एव सर्वान् दुष्टाँल्लोककण्टकान् दस्य्यादीन्निवार्य्य राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो अपराधी मित्रांनाही दंड दिल्याशिवाय सोडत नाही. जो असे प्रयत्न करतो की, ज्यामुळे आपले मित्र उदासीन व शत्रू अधिक नसावेत. तसेच जो सदैव विद्या व शिक्षणासाठी प्रयत्न करतो, दुष्ट लोकांचे निवारण करून राज्य करण्यायोग्य असतो तोच राजा सदैव उन्नत होतो. ॥ २ ॥