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आ नो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ स॒जोषा॒ ब्रह्म॑ जुषा॒णो ह॑र्यश्व याहि। वरी॑वृज॒त्स्थवि॑रेभिः सुशिप्रा॒स्मे दध॒द्वृष॑णं॒ शुष्म॑मिन्द्र ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no viśvābhir ūtibhiḥ sajoṣā brahma juṣāṇo haryaśva yāhi | varīvṛjat sthavirebhiḥ suśiprāsme dadhad vṛṣaṇaṁ śuṣmam indra ||

पद पाठ

आ। नः॒। विश्वा॑भिः। ऊ॒तिऽभिः॑। स॒ऽजोषाः॑। ब्रह्म॑। जु॒षा॒णः। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। या॒हि॒। वरी॑वृजत्। स्थवि॑रेभिः। सु॒ऽशि॒प्र॒। अ॒स्मे इति॑। दध॑त्। वृष॑णम्। शुष्म॑म्। इ॒न्द्र॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:24» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन आप्त विद्वान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुशिप्र) उत्तम शोभायुक्त ठोढ़ीवाले (हर्यश्व) हरणशील मनुष्य वा घोड़े बड़े-बड़े जिसके हुए वह (इन्द्र) परम ऐश्वर्य देनेवाले ! (विश्वाभिः) समस्त (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं से (सजोषाः) समानप्रीति सेवनेवाले (ब्रह्म) धन वा अन्न को (जुषाणः) सेवने वा (स्थविरेभिः) विद्या और अवस्था में वृद्धों के साथ (अस्मे) हम लोगों में (वृषणम्) सुख वर्षानेवाले (शुष्मम्) बल को (दधत्) धारण करते हुए आप दुःखों को (वरीवृजत्) निरन्तर छोड़ो और (नः) हम लोगों को (आ, याहि) आओ, प्राप्त होओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - वे ही मनुष्य महाशय होते हैं, जो पाप और परोपघात अर्थात् दूसरों को पीड़ा देने के कामों को छोड़ के अपने आत्मा के तुल्य सब मनुष्यों में वर्त्तमान सब के सुख के लिये अपना शरीर, वाणी और ठोढ़ी को वर्ताते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः क आप्ता भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे सुशिप्र हर्यश्वेन्द्र ! विश्वाभिरूतिभिः सजोषा ब्रह्म जुषाणः स्थविरेभिरस्मे वृषणं शुष्मं दधत् त्वं दुःखानि वरीवृजन्नोऽस्मानायाहि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिक्रियाभिः (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (ब्रह्म) धनमन्नं वा (जुषाणः) सेवमानः (हर्यश्वः) हरयो मनुष्या अश्वा महान्त आसन् यस्य तत् सम्बुद्धौ (याहि) प्राप्नुहि (वरीवृजत्) भृशं वर्जय (स्थविरेभिः) विद्यावयोवृद्धैः सह (सुशिप्र) सुशोभितमुखावयव (अस्मे) अस्मासु (दधत्) धेहि (वृषणम्) सुखवर्षकम् (शुष्मम्) बलम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद ॥४॥
भावार्थभाषाः - त एव मनुष्या महाशया भवन्ति ये पापानि परोपघातान् वर्जयित्वा स्वात्मवत्सर्वेषु मनुष्येषु वर्त्तमानाः सर्वेषां सुखाय स्वकीयं शरीरं वाग्धनुमात्मानं च वर्त्तयन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे पाप व परपीडा यांचा त्याग करून आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्व माणसांना जाणून सर्वांच्या सुखासाठी आपले शरीर, वाणी यांचा उपयोग करतात तीच माणसे महान असतात. ॥ ४ ॥