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तन्न॑स्तु॒रीप॒मध॑ पोषयि॒त्नु देव॑ त्वष्ट॒र्वि र॑रा॒णः स्य॑स्व। यतो॑ वी॒रः क॑र्म॒ण्यः॑ सु॒दक्षो॑ यु॒क्तग्रा॑वा॒ जाय॑ते दे॒वका॑मः ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tan nas turīpam adha poṣayitnu deva tvaṣṭar vi rarāṇaḥ syasva | yato vīraḥ karmaṇyaḥ sudakṣo yuktagrāvā jāyate devakāmaḥ ||

पद पाठ

तत्। नः॒। तु॒रीप॑म्। अध॑। पो॒ष॒यि॒त्नु। देव॑। त्व॒ष्टः॒। वि। र॒रा॒णः। स्य॒स्वेति॑ स्यस्व। यतः॑। वी॒रः। क॒र्म॒ण्यः॑। सु॒ऽदक्षः॑। यु॒क्तऽग्रा॑वा। जाय॑ते। दे॒वऽका॑मः ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:2» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (त्वष्टः) विद्या को प्राप्त करानेवाले (देव) विद्वान् ! (वि, रराणः) विशेष विद्या देते हुए (नः) हमारे (तत्) पढ़ाने के आसन को (पोषयित्नु) पुष्ट करनेवाले (तुरीपम्) शीघ्र (स्यस्व) विद्या को पार कीजिये (अध) अब (यतः) जिससे (कर्मण्यः) कर्मों में कुशल (सुदक्षः) सुन्दर बल से युक्त (युक्तग्रावा) मेघ को युक्त करने और (देवकामः) विद्वानों की कामना करनेवाला (वीरः) वीर पुरुष (जायते) प्रकट होता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को उचित है कि सब लाभों से विद्यालाभ को उत्तम मान के उसको प्राप्त हों, सदैव जो विद्वानों का सङ्ग करके सदा कर्मों का अनुष्ठान करनेवाला होता है, वह श्रेष्ठ आत्मा के बलवाला होता है ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे त्वष्टर्देव ! विरराणस्त्वं नस्तत्पोषयित्नु तुरीपं स्यस्वाऽध यतः कर्मण्यः सुदक्षो युक्तग्रावा देवकामो वीरो जायते ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) अध्यापनासनम् (नः) अस्माकम् (तुरीपम्) क्षिप्रम् (अध) अथ (पोषयित्नु) पोषकम् (देव) विद्वन् (त्वष्टः) विद्याप्रापक (वि) (रराणः) विद्या ददत् सन् (स्यस्व) विद्यां पारं गमय (यतः) (वीरः) (कर्मण्यः) कर्मसु कुशलः (सुदक्षः) सुष्ठु बलोपेतः (युक्तग्रावा) युक्तो योजितो ग्रावा मेघो येन सः (जायते) (देवकामः) देवानां विदुषां काम इच्छा यस्य सः ॥९॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेभ्यो लाभेभ्यो विद्यालाभमुत्तमं मत्वा तत्प्राप्तव्यं सदैव विद्वत्सङ्गमनं कृत्वा सदैव कर्मानुष्ठानी जायते सः श्रेष्ठात्मबलो भवति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी सर्व लाभात विद्यालाभ उत्तम मानून तो प्राप्त करावा. जो सदैव विद्वानांबरोबर राहतो व सदैव कर्माचे अनुष्ठान करतो त्याचे आत्मबल श्रेष्ठ असते. ॥ ९ ॥